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Tuesday, 12 September 2023

Chief Election Commissioner of India

क्र० नाम पद अवधि
1. सुकुमार सेन 21 मार्च, 1950 - 19 दिसम्बर, 1958
2. के०वी०के० सुंदरम 20 दिसम्बर, 1958 - 30 सितम्बर, 1967
3. एस०पी० सेन वर्मा 1 अक्टूबर, 1967 - 30 सितम्बर, 1972
4. डॉ० नगेन्द्र सिंह 1 अक्टूबर, 1972 - 6 फरवरी, 1973
5. टी० स्वामीनाथन 7 फरवरी, 1973 - 17 जून, 1977
6. एस०एल० शकधर 18 जून, 1977 - 17 जून, 1982
7. आर०के० त्रिवेदी 18 जून, 1982 - 31 दिसम्बर, 1985
8. आर०वी०एस० पेरिशास्त्री 1 जनवरी, 1986 - 25 नवम्बर, 1990
9. श्रीमती वी०एस० रमादेवी 26 नवम्बर, 1990 - 11 दिसम्बर, 1990
10. टी०एन० शेषन 12 दिसम्बर, 1990 - 11 दिसम्बर, 1996
11. एम०एस० गिल 12 दिसम्बर, 1996 - 13 जून, 2001
12. जे०एम० लिंगदोह 14 जून, 2001 - 7 फरवरी, 2004
13. टी०एस० कृष्णामूर्ति 8 फरवरी, 2004 - 15 मई, 2005
14. बी०बी० टंडन 16 मई, 2005 - 29 जून, 2006
15. एन० गोपालस्वामी 30 जून, 2006 - 20 अप्रैल, 2009
16. नवीन चावला 21 अप्रैल, 2009 - 29 जुलाई, 2010
17. एस०वाई० कुरैशी 30 जुलाई, 2010 - 10 जून, 2012
18. वी०एस० संपत 11 जून, 2012 - 15 जनवरी, 2015
19. हरिशंकर ब्रह्मा 16 जनवरी, 2015 - 18 अप्रैल, 2015
20. नसीम जैदी 19 अप्रैल, 2015 - 5 जुलाई, 2017
21. अचल कुमार ज्योति 6 जुलाई, 2017 - 22 जनवरी, 2018
22. ओम प्रकाश रावत 23 जनवरी, 2018 - 1 दिसम्बर, 2018
23. सुनील अरोड़ा 2 दिसम्बर, 2018 - 12 अप्रैल, 2021
24. सुशील चन्द्रा 13 अप्रैल, 2021 - 14 मई, 2022
25. राजीव कुमार 15 मई, 2022 - अब तक

Chief Election Commissioner of India
Chief Election Commissioner of India



Last Update:-12/09/2023

Friday, 18 August 2023

Chief Justice of India

क्र० नाम पद अवधि
1. हरिलाल जे० कानिया 26 जनवरी, 1947 - 6 नवम्बर, 1951
2. एम० पंतजलि शास्त्री 7 नवम्बर, 1951 - 3 जनवरी, 1954
3. मेहर चंद महाजन 4 जनवरी, 1954 - 22 दिसम्बर, 1954
4. बी० के० मुखर्जी 23 दिसम्बर, 1954 - 31 जनवरी, 1956
5. एस०आर० दास 1 फरवरी, 1956 - 30 सितम्बर, 1959
6. भुवनेश्वर प्रसाद सिन्हा 1 अक्टूबर, 1959 - 31 जनवरी, 1964
7. पी०बी० गजेंद्रगडकर 1 फरवरी, 1964 - 15 मार्च, 1966
8. ए०के० सरकार 16 मार्च, 1966 - 29 जून, 1966
9. के० सुब्बाराव 30 जून, 1966 - 11 अप्रैल, 1967
10. के० एन० वांचू 12 अप्रैल, 1967 - 24 फरवरी, 1968
11. एम० हिदायतुल्लाह 25 फरवरी, 1968 - 16 दिसम्बर, 1970
12. जे०सी० शाह 17 दिसम्बर, 1970 - 21 जनवरी, 1971
13. एस०एम० सीकरी 22 जनवरी, 1971 - 25 अप्रैल, 1973
14. ए०एन० रे 26 अप्रैल, 1973 - 28 जनवरी, 1977
15. एम०एच० बेग 29 जनवरी, 1977 - 21 फरवरी, 1978
16. वाई०वी० चंद्रचूड़ 22 फरवरी, 1978 - 11 जुलाई, 1985
17. प्रफुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती 12 जुलाई, 1985 - 20 दिसम्बर, 1986
18. रघुनन्दन स्वरूप पाठक 21 दिसम्बर, 1986 - 18 जून, 1989
19. ई०एस० वेंकटरमैया 19 जून, 1989 - 2 दिसम्बर, 1989
20. एस० मुखर्जी 18 दिसम्बर, 1989 - 25 सितम्बर, 1990
21. रंगनाथ मिश्र 25 सितम्बर, 1990 - 24 नवम्बर, 1991
22. के०एन० सिंह 25 नवम्बर, 1991 - 12 दिसम्बर, 1991
23. एम०एच० कानिया 13 दिसम्बर, 1991 - 17 नवम्बर, 1992
24. एल०एम० शर्मा 18 नवम्बर, 1992 - 11 फरवरी, 1993
25. एम०एन० वेंकटचलैया 12 फरवरी, 1993 - 24 अक्टूबर, 1994
26. ए०एम० अहमदी 25 अक्टूबर, 1994 - 24 मार्च, 1997
27. जे०एस० वर्मा 25 मार्च, 1997 - 17 जनवरी, 1998
28. एम०एम० पंछी 18 जनवरी, 1998 - 9 अक्टूबर, 1998
29. ए०एस० आनन्द 10 अक्टूबर, 1998 - 31 अक्टूबर, 2001
30. एस०पी० भरुचा 1 नवम्बर, 2001 - 5 मई, 2002
31. बी०एन० कृपाल 6 मई, 2002 - 7 नवम्बर, 2002
32. जी०बी० पटनायक 8 नवम्बर, 2002 - 18 दिसम्बर, 2002
33. वी०एन० खरे 19 दिसम्बर, 2002 - 1 मई, 2004
34. एस०राजेन्द्र बाबू 2 मई, 2004 - 31 मई, 2004
35. आर०सी० लाहोटी 1 जून, 2004 - 31 अक्टूबर, 2005
36. वाई० के० सब्बरवाल 1 नवम्बर, 2005 - 13 जनवरी, 2007
37. के०जी० बालाकृष्णनन 14 जनवरी, 2007 - 11 मई, 2010
38. एस०एच० कपाड़िया 12 मई, 2010 - 28 सितम्बर, 2012
39. अल्तमश कबीर 29 सितम्बर, 2012 - 18 जुलाई, 2013
40. पी० सदाशिवम 19 जुलाई, 2013 - 26 अप्रैल, 2014
41. आर०एम० लोढ़ा 27 अप्रैल, 2014 - 27 सितम्बर, 2014
42. एच०एल० दत्तू 28 सितम्बर, 2014 - 2 दिसम्बर, 2015
43. टी०एस० ठाकुर 3 दिसम्बर, 2015 - 3 जनवरी, 2017
44. जे०एस० खट्टर 4 जनवरी, 2017 - 27 अगस्त, 2017
45. दीपक मिश्रा 28 अगस्त, 2017 - 2 अक्टूबर, 2018
46. रंजन गोगोई 3 अक्टूबर, 2018 - 17 नवम्बर, 2019
47. शरद अरविन्द बोबड़े 18 नवम्बर, 2019 - 23 अप्रैल, 2021
48. एन०वी० रमण 24 अप्रैल, 2021 - 26 अगस्त, 2022
49. उदय उमेश ललित 27 अगस्त, 2022 - 8 नवम्बर, 2022
50. धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड़ 9 नवम्बर, 2022 - अब तक

Chief Justice of India
Chief Justice of India



Last Update:-18/08/2023

Thursday, 20 July 2023

National symbols of India

राष्ट्रीय चिह्न

  • राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक के सिंह- स्तम्भ के शीर्ष की अनुकृति है।
  • सारनाथ स्थित अशोक के सिंह-स्तम्भ में चार शेर खुले मुख करके एक-दूसरे की ओर पीठ करके दृष्टिगोचर होते हैं। राष्ट्रीय चिह्न में सिर्फ तीन ही शेर दिखाई देते हैं, जिनके नीचे की पट्टी के मध्य में उभरी हुई नक्काशी में चक्र है, जिसके दाईं ओर एक सांड़ और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएँ तथा बाएँ छोरों पर अन्य चक्रों के किनारे दृष्टिगत होते हैं।
  • राष्ट्रीय चिह्न के दो भाग हैं - शीर्ष और आधार।
  • शीर्ष पर शेर को दिखलाया गया है, जो साहस व शक्ति का प्रतीक है।
  • आधार भाग में एक धर्म-चक्र है। चक्र के दाईं ओर एक बैल है, जो कठिन परिश्रम व स्फूर्ति का प्रतीक है तथा बाईं ओर एक घोड़ा है, जो ताकत व गति का प्रतीक है।
  • आधार के बीच में देवनागरी लिपि में 'सत्यमेव जयते' लिखा गया है, जो मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है।
  • इस राष्ट्रीय चिह्न को 26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया था।
  • इस राष्ट्रीय चिह्न का प्रयोग सरकारी कागजों, नोटों, सिक्कों तथा मोहरों पर होता है।
राष्ट्रीय ध्वज
  • संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा) का प्रारूप 22 जुलाई, 1947 को अपनाया था।
  • ध्वज में समान अनुपात वाली तीन आड़ी पट्टियाँ हैं, जो केसरिया, सफेद व हरे रंग की हैं।
  • ध्वज के ऊपर गहरा केसरिया रंग होता है, जो जागृति, शौर्य तथा त्याग का प्रतीक है, बीच में सफेद रंग होता है, जो सत्य एवं पवित्रता का प्रतीक है तथा सबसे नीचे गहरा हरा रंग होता है, जो जीवन एवं समृद्धि का प्रतीक है।
  • ध्वज के बीच में सफेद रंग वाली पट्टी के बीच में गहरे नीले रंग का 24 तीलियों वाला अशोक चक्र है, जो धर्म तथा ईमानदारी के मार्ग पर चलकर देश को उन्नति की ओर ले जाने की प्रेरणा देता है।
  • ध्वज की लम्बाई तथा चौड़ाई का अनुपात 3:2 है।
  • ध्वज का प्रयोग व प्रदर्शन एक संहिता द्वारा नियमित होता है।

National symbols of India
National symbols of India


Update Soon...

Wednesday, 14 June 2023

Countries and National Symbols

क्र० देश राष्ट्रीय चिह्न
1. भारत अशोक चक्र
2. जर्मनी ईगल
3. स्पेन ईगल
4. पोलैण्ड ईगल
5. बांग्लादेश कंबल (वाटर लिली)
6. चिली कंडोर एवं ह्युमुल
7. इजराइल कैंडलाब्रुम
8. संयुक्त राज्य अमेरिका गोल्डेन रॉड
9. तुर्की चाँद-तार
10. ईरान गुलाब का फूल
11. पाकिस्तान चमेली का फूल
12. जिम्बाब्वे जिम्बाब्वे पक्षी
13. रूस डबल हेडेड ईगल
14. डेनमार्क बीच
15. कनाडा मैपल पत्ती
16. ऑस्ट्रेलिया वैटल
17. नार्वे शेर
18. फ्रांस लिली
19. इटली सफेद लिली
20. यूनाइटेड किंगडम सफेद लिली


Countries and National Symbols
Countries and National Symbols


Thursday, 15 December 2022

The Achievements of Louis XIV

लुई चौदहवें की उपलब्धियों 

लुई तेरहवें की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र लुई चौदहवाँ फ्रांस का शासक बना। जब वह गद्दी पर बैठा तब वह मात्र 5 वर्ष का था। माँ ऐन ऑफ ऑस्ट्रिया उसकी संरक्षिका बनी व मेजारिन उसका प्रधानमंत्री बना, किन्तु मेजारिन ने इस पद को समाप्त करने की लुई से पेश की जब वह मृत्यु के निकट था । लुई चौदहवाँ संसदीय शासक का पक्षधर नहीं था। वह निरंकुश शासन में विश्वास रखता था। "मैं ही राज्य हूँ" ऐसा वह कहा करता उसके समय में स्टेट्स जनरल की बैठक एक भी बार नहीं हुई। वह शानशौकत भरा जीवन जीने का शौकीन था । वह 72 वर्ष की आयु तक फ्रांस का निरंकुश शासक बना रहा।

शेवाइल के विचार लुई चौदहवें के संबंध में हैं, "वह शासन के पूर्ण सत्ता सम्पन्न शासक के रूप में निरंकुश रूप से शासन करना चाहता था। राज्य की नीति का वह स्वयं एकमात्र निर्देशक था।" लॉर्ड एक्टन ने लुई चौदहवें के बारे में कहा- "आधुनिक काल में जन्म लेने वाले शासकों में लुई चौदहवाँ सबसे योग्य व्यक्ति था । "

डेविड ऑग ने लुई चौदहवें के संबंध में लिखा- लुई चौदहवाँ इस बात में विश्वास करता था कि राजत्व एक बहुत विशिष्ट कृति है जिसका लगातार प्रयोग होना चाहिए और उसमे मनुष्य को समझने की चतुराई होनी चाहिए। लुई चौदहवें को प्रश्न करने और उनके उत्तर देने की आदत थी। उसकी लाभप्रद सूचना का समीकरण करने और उसे अपनी ही वस्तु बनाकर उपयोग मे लाने की योग्यता लुई चौदहवें की ऐसी विशेषता थी जो प्रायः उन व्यक्तियों में होती है, जिन्हें विचार करने की अपेक्षा कार्यक्षेत्र में उतरना पड़ता है, किन्तु यह

उल्लेखनीय है कि सुई चौदहवे को उत्तराधिकार में सर्वोत्तम मंत्री प्राप्त हुए थे जिनकी मृत्यु के पश्चात् निम्नस्तरीय व्यक्तियों की नियुक्ति हुई। सुई चौदहवाँ स्वयं कहा करता था - परिश्रम करना शासक का कर्तव्य है जो शासक परिश्रम से जी चुराते हैं उनको ईश्वर के सामने कृतघ्न और मनुष्य के प्रति अन्यायी होना पड़ेगा।

वाल्टेयर ने लिखा है-लुई चौदहवाँ अपने समय का महान सम्राट था और उसके काल को एक महान काल कहा जा सकता है कि जिसमें फ्रांस के राज्य का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ा और 17वीं शताब्दी तक फ्रांस को सुई ने यूरोप को सर्वश्रेष्ठ देश बना दिया।

लुई चौदहवें की शासन व्यवस्था एवं गृह नीति लुई ने रिशलू की शासन को ही महत्व दिया। शासन व्यवस्था की विशेषताएँ:

1. स्टेट्स जनरल संस्थाओं के अधिकारों में कमी : लुई चौदहवे ने निरंकुश शासन स्थापित करने के लिए स्टेट्स जनरल संस्थाओं के अधिकारों में कमी की और उसने कम ही इसके अधिवेशन बुलाये। 

2. शासन की आन्तरिक व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया : लुई अच्छी प्रकार से जानता था कि जब तक शासन की आंतरिक स्थिति अच्छी नहीं होगी तब तक शासन में पूर्ण रूप से सुधार नहीं हो सकता है। उसने शासन की अन्दरूनी मामलों पर विशेष ध्यान दिया।

3. मध्यम वर्ग के लोगों की शासन में प्रमुखता : लुई चौदहवें ने शासन के महत्वपूर्ण पदों पर से महत्त्वाकांक्षी लोगों को हटाकर मध्यम वर्ग के लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया क्योंकि इस वर्ग के लोग लुई चौदहवें के प्रति विशेष श्रद्धा रखते थे। छेवर ने लिखा है-लुई मित्र खरीदने की कला में दक्ष था। लुई चौदहवें ने अनेक योग्य व्यक्तियों के साथ काल्वर्ट को फ्रांस का वित्तमंत्री नियुक्त किया।

4. आर्थिक विकास पर बल देना : लुई चौदहवाँ अच्छी प्रकार से जानता था कि जब तक फ्रांस का आर्थिक विकास नहीं होता है तब तक फ्रांस का चहुँमुखी विकास संभव नहीं है। बिना विकास से देश की प्रतिष्ठा स्थापित नहीं की जा सकती है। इसके लिए उसने औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया। 

5. नये करों की व्यवस्था : लुई चौदहवें ने ऐसे करों की व्यवस्था की जो पूर्व में नहीं लगाये जाते थे जिससे राज्य को अधिक से अधिक राजस्व प्राप्त नहीं हो पाता था। धन के अभाव में विकास कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था। 

6. विश्वविद्यालयों की स्थापना : योग्य लोगों की आवश्यकता को देखते हुए जो शासन में महत्वपूर्ण सहयोग दे सके इसके लिए लुई चौदहवे ने अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना की। नये शिक्षण संस्थाओं के खुलने से फ्रांस में कला और साहित्य की प्रगति को प्रोत्साहित किया।

7. रिक्त राजकोष को धन से भर देना : लुई चौदहवे ने अपने शासनकाल के : दौरान रिक्त राजकोष को धनधान्य से भर दिया। फ्रांस के युद्धों और सुई चौदहवें की दरबार की शानशौकत के लिए काल्वर्ट ने ही धन की व्यवस्था की ग्राण्ट महोदय ने लिखा है- "काल्वर्ट के सुधारों से फ्रांस में औद्योगिक विकास की उन्नति हुई। प्रजा धनी हुई और राजा शक्तिशाली बना।" 

8. व्यापार व्यवस्था में सुधार : लुई चौदहवे ने देश का व्यापार बढ़ाया जिससे देश की धन सम्पत्ति में वृद्धि हुई और प्रजा भी सम्पन्न हुई। उसने राजदरबार की शान-शौकत के साथ-साथ सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए भी पर्याप्त धन-व्यय किया। फ्रांस में व्यापार से पर्याप्त वृद्धि हुई। अमेरिका, इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रिया से फ्रांस का व्यापार कई गुणा बढ़ गया था। व्यापार स्थल एवं जलमार्ग दोनों मार्गों से होने के कारण पर्याप्त आय में वृद्धि हुई।

9. यातायात एवं अन्य सुधार : उसने आवागमन के लिए नये यातायात के साधनों का विकास किया। इसके अतिरिक्त नवीन मार्गों का निर्माण करवाया। उसका मानना था कि जब तक देश के अन्दर आवागमन के समुचित साधनों की व्यवस्था नहीं होगी तब तक औद्योगीकरण एवं व्यापार के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति नहीं की जा सकती है। उसने अनेक नहरों का निर्माण करवाया। 

10. कृषि व्यवस्था में सुधार : लुई चौदहवें ने खाद्यान्न संकट को दूर करने के लिए कृषि व्यवस्था में व्यापक सुधार कार्य किये। उसने ऐसे नवीन पद्धति के विकास पर बल दिया जिससे अधिक से अधिक कृषि के क्षेत्र में उत्पादन हो सके। कृषि के क्षेत्र में यन्त्रीकरण को बढ़ावा दिया। कृषि अनुसंधान के लिए नवीन प्रयोगशालाएँ स्थापित करवायी। कृषकों के लिए फसलों की बुवाई के समय अधिक से अधिक धन उपलब्ध कराने की व्यवस्था की।

लुई चौदहवें की धार्मिक नीति

गैलिकन लिबर्टीज नामक अध्यादेश के द्वारा उसने घोषित किया कि पोप का क्षेत्र केवल आध्यात्मिक है और सम्राट पोप पर निर्भर नहीं है। पोप द्वारा इस अध्यादेश का विरोध करने की खुई चौदहवें ने कोई चिन्ता नहीं की।

हेज के अनुसार, "लुई चौदहवाँ चर्च पर नियंत्रण और धार्मिक एकता स्थापित करना चाहता था। पोप ने जब इसका विरोध किया तो वह पोप के साथ संघर्ष करने में भी नहीं

हिचकिचाया।" प्रोटेस्टेण्टों पर अत्याचार : लुई चौदहवें ने प्रोटेस्टेण्टों पर अनेक अत्याचार किये जिससे लोगों ने अपना देश फ्रांस छोड़ना उचित समझा और लुई के शत्रुओं से जा मिले। इससे लुई चौदहवें को आर्थिक हानि हुई।

लुई चौदहवें की विदेश नीति

लुई चौदहवें ने अपनी विदेश नीति में निम्नलिखित बिन्दुओं पर विशेष ध्यान दिया जो इस प्रकार से हैं-

1. साम्राज्य विस्तार पर बल : लुई चौदहवाँ अपने पिता की भाँति अधिक से अधिक अपने साम्राज्य का विस्तार करने का इन्छुक था। इसके लिए उसने वैदेशिक मामलों का निपटारा कठोरतापूर्ण तरीके से किया। 2. शस्त्रीकरण में विश्वास उसने अपने देश को अधिक से अधिक अत्याधुनिक हथियारों से परिपूर्ण बनाने पर बल दिया जिससे शत्रु सेना से आसानी से निपटा जा सके।

3. उच्च गुप्तचर व्यवस्था एवं शक्तिशाली देशों के साथ अनुकूल व्यवहार : मेजारिन के अनुसार उसने ऐसे देशों की एक सूची बनायी जिससे उसको वैदेशिक मामलों में सहयोग मिल सकता था। गुप्तचर प्रणाली को पुनर्गठित किया ताकि कोई आधी अधूरी सूचना ही नहीं प्राप्त हो सके।

4. वैदेशिक व्यापार पर बल : लुई चौदहवें ने अपने वैदेशिक मामलों के साथ-साथ वैदेशिक व्यापार पर भी महत्वपूर्ण ध्यान दिया। वह अपने निकटवर्ती राज्यों में अधिक से अधिक व्यापारिक सामग्री बेचकर धन कमाना चाहता था।

The Achievements of Louis XIV
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Saturday, 11 June 2022

The Sixteen Mahajanapadas in the 6th Century B.C.

महाभारत युद्ध के पश्चात् भारत अनेक राज्यों में विभक्त हो गया। वैदिक काल में आर्यों का राजनीतिक आधार जन था। उत्तर वैदिक काल में जनपद का विकास हुआ। राज्य की कल्पना भौगोलिक आधार पर होने लगी। छठी शताब्दी ई.पू. मे भारत में अनेक जनपद विद्यमान थे। बौद्ध ग्रन्थों में ऐसे अनेक जनपदों का उल्लेख मिलता है। उस समय भारत में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता का अभाव था और देश में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति विद्यमान थी। छोटे-छोटे जनपदों को मिलाकर महाजनपदों का निर्माण हुआ और ऐसे 'सोलह' या 'पोड्स' महाजनपदों का उल्लेख हमे बौद्ध साहित्य में मिलता है। अंगुत्तरनिकाय' में इस सोलह महाजनपदों का उल्लेख हमें बौद्ध साहित्य में मिलता है। 'अंगुत्तरनिकाय' इस महाजनपदों का वर्णन इस प्रकार है-अंग, मगाधू, काशी, कोशल, वृज्जि, मल्ल, चेदि, दस, पंचाल, मत्स्य, सूरसेन, अस्मक, अवन्ति, गन्धार, कम्बोज, वृज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पंचाल, मत्स्य, सूरसेन, अस्मक, अवन्ति, गन्धार, कम्बोज । इस युग को महाजनपदों का युग कहा जाता है। सोलह महाजनपदों की आठ पड़ोसी जोड़ियाँ इस प्रकार थी- अंग-मगध, काशी-कोशल, वृज्जि-मल, चेदि-वत्स, कुरु-पंचाल, मत्स्य-सूरसेन, अस्मक-अवन्ति और गान्धार-कम्बोज। प्रत्येक राज्य अपने आपमे स्वतंत्र था। इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चल रहा था और उनमें साम्राज्य प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव हो रहा था। शक्तिशाली राज्य अपनी शक्ति एवं सीमा के विस्तार में संलग्न थे तथा वे निर्बल राज्यों को हड़पने का प्रयास कर रहे थे। सभी शक्तिशाली राज्य सम्पूर्ण उत्तर भारत में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे। राजतंत्रात्मक राज्यों की शक्ति बढ़ रही थी तथा गणतंत्रात्मक राज्यों का पतन हो रहा था।


इस युग के सोलह महाजन पदों का विवरण इस प्रकार है 1. अंग (Anga), 2. मगध (Magadh), 3. काशी (Kashi), 4. कौशल (Koshal), 5. वज्जि (Vajji), 6. मल्ल (Malla), 7. चेदि (Chedi), 8. वत्स (Vatsa), 9. कुरू (Kuru), 10. पांचाल (Panchal), 11. मत्स्य (Matsya), 12. शूरसेन (Shursen), 13. अस्मक (Asmaka), 14. अवन्ती (Awanti), 15. कम्बौज (Kamboja), 16. गान्धार (Gandhara)


ये सभी राज्य बड़े-बड़े राज्य नहीं थे, बल्कि छोटे-छोटे थे। इनके आपस में संघर्ष होता रहता था। एक दूसरे के कुछ भाग को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। धीरे-धीरे कई राज्यों का पतन हो गया। इसमें से केवल चार राज्य रह गये, जो निम्नलिखित हैं 1. अवन्ती, 2. कौशल, 3. वत्स, 4. मगध


(1) कोशल राज्य : कोशल एक अत्यंत ही प्राचीन राज्य था जहाँ दशरथ और राम आदि ने राज किया था। काल-क्रम में इनका पतन हो गया, परन्तु छठी शताब्दी ई०पू० में कंस के काल में इसका पुनरुत्थान हुआ था। कंस ने काशी को कोशल में मिला लिया था जिससे कोशल राज्य में काफी प्रगति आ गई थी। बुद्धकालीन प्रसेनजित ने तो वास्तव में कोशल में चार चाँद लगा दिया था। उसने तक्षशिला में विश्वविद्यालय की स्थापना करवायी थी जिसकी कीर्ति विश्व के कोने-कोने में फैल गई थी। वह उदार और दानी था। वह बुद्ध का अनन्य भक्त और प्रमी था। वह विषम परिस्थितियों में बुद्ध से सलाह लिया करता था। प्रसेनजित के पिता महाकौशल ने अपनी अति प्रिय पुत्री की शादी मगध नरेश बिम्बसार के साथ कर दी थी। इन वैवाहिक संबंधों से कोशल और मगध के बीच झगड़े का कारण बन गया। इस झगड़े से दोनों देशों को बहुत क्षति उठानी पड़ी।


कोशल के तीन प्रसिद्ध नगर (अयोध्या, साकेत और श्रावस्ती) थे। ये तीनों नगर बहुत ही उन्नत थे, जहाँ हर तरह की चीजा का व्यापार खूब होता था, प्रसेनजित एक कुशल शासक था। वह अपने मंत्रियों की सलाह से कोशल पर राज्य करता था लेकिन वह कुछ नीच मंत्रियों से विक्षुब्ध रहा करता था। अंत में एक मंत्री ने उससे विद्रोह करके उसके पुत्र विडूा को राजसिंहासन पर बैठा दिया। विवश होकर प्रसेनजित ने अजातशत्रु से मदद माँगी। वह उसे समय पर मदद न पहुँचा सका। वह सभी विपत्तियों को झेलता हुआ राजगृह तक पहुँचा था परन्तु कही से उसे मदद न मिली अन्त में राजद्वार पर गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गई।


अब कोशल का राजा उसका पुत्र विडुदम हुआ। वह अयोग्य शासक था। उसने कोशल की मान-मर्यादा को थोड़े ही दिनों में खो दिया। वह कोशल का कलंक सिद्ध हुआ। उसने शक्यों पर चढ़ाई कर बड़ी संख्या में शाक्यों को मार डाला था। इतना ही नहीं, उसने शाक्यों का एकदम ही विध्वंश कर डाला। फलत: कपिलवस्तु पूर्ण रुप से वीरान हो गई। अन्त में कोशल राज्य मगध राज्य से मिला दिया गया।


(2) मगध राज्य : मगध पर पुराणों के अनुसार शिशुनाग वंश का शासक राजा बिम्बसार राज्य करता था। बिम्बसार भट्टिया नामक एक साधारण मांडलिक का पुत्र था। उसकी पहली राजधानी गिरिब्रज में थी, परन्तु बाद में उसने राजगृह को अपनी राजधानी बना ली। बिम्बसार एक कुशल शासक था। उसने अपना राजनैतिक प्रभाव वैवाहिक संबंधों से बढ़ाया। उसकी पहली रानी कोशल नरेश प्रसेनजित की भगिनी कोशल देवी थी। इसके दहेज में बिम्बसार को काशी राज्य मिला था। उसकी दूसरी रानी लिच्छिवी के चेटक की कन्या चेल्हना थी। उसकी तीसरी रानी क्षेमाभद पंजाब की राजकुमारी थी। इन वैवाहिक संबंधों से मगध की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई थी। इसके अतिरिक्त बिम्बसार ने राजनैतिक मित्रता के द्वारा भी मगध के साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया। गाधार राज्य का राजदूत उसके राज्य में आया था। उसने रण-कौशल से भी अपने राज्य का विस्तार किया। उसने ब्रहादत्त को हराकर अंग को मगध में मिला लिया। फलत: अंग के सभी बड़े-बड़े नगर मगध के अधीन हो गये। जब बुद्ध उसकी राजधानी राजगृह में आये थे तो बिम्बसार ने बौद्ध धर्म को स्वीकर कर लिया था। वह महावीर स्वामी का अनुयायी था।


अजातशत्रु : बिम्बसार के बाद उसका पुत्र अजातशत्रु मगध की गद्दी पर बैठा। वह कुणिक के नाम से प्रसिद्ध था। वह राजकार्य में माहिर था। अपने चचेरे भाई देवदत्त के बहकावे में आकर अपने पिता को ही बन्दी बना कर जेल में उसे भूखा मार डाला। अतः वह अपने पिता का वध कर मगध का राजा बना था। पिता के बध के बाद वह बुद्ध से मिला था और इस पाप के प्रति शोक प्रकट किया था। तब बुद्ध ने उससे कहा था- जाओ फिर पाप न करना।


अजातशत्रु ने कोशल राज्य पर चढ़ाई कर वहाँ के राजा प्रसेनजित की पुत्री वजीरा से शादी कर ली और काशी राज्य पर उसका पुन अधिकार हो गया। अजातशत्रु ने राज्य की दूसरी प्रमुख घटना थी लिच्छिवों के साथ उसका संघर्ष। इस संघर्ष में अजातशत्रु ने विजय प्राप्त करने के लिए सभी उपायों का सहारा लिया। काफी समय तक दोनो में संघर्ष चलता रहा। परन्तु अन्त में अजातशत्रु को विजयश्री मिली। अब लिच्छिवियों का राज्य मगध में विलीन हो गया। धीरे-धीरे अंग, काशी और वैशाली, मगध राज्य के अन्तराल में समा गये। अजातशत्रु अपने शुरु के दिनों में जैन धर्म का अनुयायी था परन्तु महात्मा बुद्ध के निर्वाण-प्राप्ति के बाद वह बौद्ध हो गया।


(3) वत्स राज्य : वत्स एकतंत्र राज्य था। कौशाम्बी उसकी राजधानी थी जो व्यापार का एक बहुत बड़ा केन्द्र था। कौशाम्बी के प्रसिद्ध नगर वाराणसी, राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती और तक्षशिला थे। यहाँ की प्रजा खुशहाल थी। छठी शताब्दी ई० पू० में कौशाम्बी का राजा उदयन था। वह युद्धप्रिय और शक्तिशाली राजा था। उसने अजातशत्रु तथा अवन्तिधिपति प्रज्योट दोनों के साथ वैवाहिक संबंध जोड़ा था। इस वैवाहिक संबंध में उदयन की स्थिति अत्यधिक सुरक्षित हो गई थी। अवन्ति की राजकुमारी वासवदत्ता अगराजा की राजकुमारी और मगध की राजकुमारी पद्मावती से उसने शादी कर ली थी। उसके इन वैवाहिक संबंधों का बहुत महत्व था। डाo B. B.Low के शब्दों में यदि उदयन ने ये संबंध स्थापित न किये होते तो मगध और अवन्ति की बढ़ती हुई शक्ति के सामने कौशाम्बी कभी कुचल दी गई होती। लेकिन उसने बुद्ध के उपदेश से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। तब से कौशाम्बी बौद्ध धर्म के प्रचार का एक बहुत बड़ा केन्द्र बन गया। वह बड़ा विलासी था। उसकी मौत के बाद यह राज्य अवन्ति राज्य में मिला लिया गया।


(4) अवन्ति का राज्य : बुद्ध काल में अवन्ति का राजा प्रज्योत या प्रद्योत था। वह क्रूर और युद्धप्रिय राजा था। उसने अपनी राजधानी उज्जैन को बनाया था। वह पड़ोस के सभी राज्यों से कर वसूलता था। उसने उदयन को कैद कर वत्स को अपने राज्य में मिला लिया था। उसको गोपाल और पालक दो पुत्र थे। गोपाल ने अपने भाई के लिए राजगद्दी छोड़ दी थी। परन्तु पालक बहुत दिनों तक शासन नहीं कर सका। अन्न के दिनों में प्रद्योत ने बौद्ध धर्म को मान लिया था। तब से अवन्ति बौद्ध धर्म के प्रचार का सबसे बड़ा केन्द्र बन गया। बुद्धकालीन भारत में 16 महाजन पदों और चार राजतंत्र राज्यों के अलावे बहुत से गणराज्य थे-


(1) कपिलवस्तु : कपिलवस्तु पर शाक्यों का राज्य था जो हिमालय पहाड़ की तराई में बसा हुआ था। इस राज्य की राजधानी कपिलवस्तु ही थी जहाँ पर महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। (2) वैशाली के लिच्छवी- आधुनिक बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिला (आजकल वैशाली जिला) के बसाढ़ ग्राम के निकट वैशाली स्वामी का जन्म हुआ था। (3) सुसमगिरी के भाग (4) अल्लकम्प के बुल्ली, (5) केसपुत्र के कलाम, (6) रामग्राम के कोलिय, (7) पिप्पलिवन के मोरिय, (8) कुशीनगर के यल्ल, (9) पावा के मल्ल और (10) मिथिला के विदेह आधुनिक जनकपुर में ही मिथिला थी। मिथिला ही इसकी राजधानी थी। जातक के अनुसार मिथिला एक बहुत बड़ा व्यापारिक नगर था। दूर-दूर के व्यापारी यहाँ व्यापार करने के लिए आते थे।


इन सभी गणराज्यों की शासन व्यवस्था लोकतंत्रात्मक थी। इनकी शासन सत्ता समूह में निहित थी। गण पंचायती राज्य थे। सभी तरह की समस्याओं का समाधान परिषद के द्वारा किया जाता था। निर्णय करने के लिए बैठने की जगह को संस्थागार कहा जाता था। बहुमत को जानने के लिए मतदान होता था। इनमें मंत्रिमंडल की भी व्यवस्था थी। राज्य के तीन (सेना, अर्थ और न्याय) प्रमुख विभाग होते थे। सैनिक शिक्षा अनिवार्य थी। अर्थविभाग के मुख्य अधिकारी को मंडागारिक कहा जाता था। साधारण न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील होती थी। प्रजा हर तरह से सुखी थी। संक्षेप में यही बुद्धकालीन भारत की राजनैतिक दशा थी। इन चारों राज्यों में भी संघर्ष जारी रहा। अन्त में ये सभी राज्य मगध में मिला लिये गये।


मगध के शक्तिशाली होने के कारण (Causes for Magadh's becoming a great power) : ई० पू० छठी शताब्दी में 16 महाजनपद पद थे। आगे चलकर इनकी संख्या घटकर चार रह गयी। इसमें मगध सर्वाधिक शक्तिशाली हो गया। इसके निम्नलिखित कारण थे-


(1) मगध के शक्तिशाली होने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण वहाँ के शासकों का योग्य और साहसी होना था। इस साम्राज्य के बढ़ाने में बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदय भद्र, शिशुनाग, महापद्मनन्द जैन शासकों का योगदान था। इन्होंने आर्थिक एवं सैनिक साधनों का कुशलता से प्रयोग किया।

(2) मगध की भौगोलिक स्थिति अत्यन्त उपयुक्त थी। इसलिए उसे विकसित होने के लिए पर्याप्त सुविधा प्राप्त हुई। उसके आस-पास के जंगलों में हाथी प्राप्त हुए। हथियार बनाने के लिए लोहे की अनेक खानें थी। उज्जैन को जीत लेने से उसकी खानों की संख्या और बढ़ गयी। लोहे के हथियारों का प्रयोग जंगलों को साफ करने में किया गया। गंगा नदी के कारण यातायात की सुविधा अधिक हो गयी।

(3) मगध की राजधानियाँ अत्यन्त सुरक्षित थी। उसकी एक राजधानी राजगिरि या राजगृह थी, जो पहाड़ियों से घिरी हुई थी। दूसरी राजधानी पाटलीपुत्र थी। यह कई नदियों के संगम पर स्थित थी। नदियों के द्वारा यहाँ के लोग दूसरे राज्यों पर आसानी से आक्रमण कर सकते थे। 

(4) मगध एक उपजाऊ प्रदेश था। इसके कारण यह शीघ्र सम्पन्न हो गया। कृषि और व्यापार से वह धनी हो गया था।

(5) मगध में अनेक जगहों का विकास हुआ। इन नगरों में अनेक प्रकार के उद्योग धन्धे स्थापित थे जिससे पर्याप्त आर्थिक लाभ हुआ। 

(6) मगध राज्य में कुशल सैनिक संगठन था, जिसके बल पर वहाँ के शासकों ने अनेक राज्यों पर विजय की।

The Sixteen Mahajanapadas in the 6th Century B.C.
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Friday, 20 May 2022

The rise of militarism in Japan

जापान में सैन्यवाद का उदय 


जापानी सैन्यवाद (1928-45 ) - जापान में सैन्यवाद का उग्रवादी चरण 1928 ई० के बाद प्रारंभ हुआ। इससे पूर्व सामंतों की समुराई परंपरा में जापानी सामंत सशस्त्र सेवक पालते थे। यद्यपि जापान में मेईजी-पुनर्स्थापन के बाद उदारवादी और प्रगतिशील दल-पद्धति का विकास हुआ था किंतु राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ नहीं पाया था। जापान की नई शासन-व्यवस्था में एक कुलीन सभा की स्थापना हुई थी। इसमें सेना के उच्चाधिकारियों को भी स्थान दिए गए थे। एक निम्न सदन, डाइट (Diet) की स्थापना हुई थी, परंतु इस लोकप्रिय सदन को पूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं प्राप्त थी। वास्तविक शक्ति राजा के कार्यकारिणी परिषद (Executive Council) में रखी गई थी। इस परिषद के सदस्य ऊपरी सदन के लिए जाते थे। इसमें अधिकतर जेनरोज (Genros) नामक कुलीन ही होते थे। कार्यकारिणी परिषद के सदस्य सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे न कि डाइट (Diet) के प्रति। इन्हें डाइट को भंग करने का अधिकार नहीं था। डाइट काफी प्रभावशाली था। सेना पर खर्च बढ़ाने की अनुमति केवल वही संस्था दे सकती थी। 1925 ई० तक डाइट का सामाजिक आधार अत्यधिक बढ़ गया था। इसी वर्ष से जापान के सभी बालिग पुरूषों को मतदान का अधिकार दे दिया गया था। जनता द्वारा चुने गए नेता डाइट के सदस्य होते थे। 


लोकप्रिय नेताओं ने सरकार पर अपना नियंत्रण बढ़ाने का जब प्रयास किया तब सम्राट ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार सेनामंत्री सदैव वरिष्ठ सेनापति ही चुना जाएगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप जापानी मंत्रिमंडल में सेना का प्रभाव बढ़ा लोकप्रिय दल की सरकार देश में सैनिक प्रभाव को कम करना चाहती थी किंतु संविधान के अनुसार ऐसा संभव नहीं था। संविधान के अनुसार उच्च सैनिक अधिकारियों एवं ऊपरी सदन के सदस्यों का आदर करना जरूरी था।


विकसित औद्योगिकीकरण के कारण वामपंथी आंदोलन बढ़ते जा रहे थे। रूढ़िवादी और सैन्यवादी चाहते थे कि वापमंधी आंदोलन को जापानी मंत्रिमंत्रल द्वारा 'कोई प्रोत्साहन नहीं मिले। संविधान का स्वरूप ऐसा था जिसके अनुसार उदारवादी जनतांत्रिक परंपरा का विकास संभव नहीं था। जापान में विकसित अर्थव्यवस्था के कारण उदारवादी विचारधारा का विकास हुआ। विकसित अर्थव्यवस्था ने ही जापान में पूँजीवादी वातावरण बनाया। पूँजीवाद के कारण जापान साम्राज्यवादी एवं सैन्यवादी योजनाएँ बनाने लगा। जापानी व्यापार और जनसंख्या में वृद्धि होती गई। व्यापार में वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया कि जापान दूर तक अपने व्यापार क्षेत्रों को सुरक्षित रखे और बढ़ती हुई जनसंख्या को उपनिवेशों में बसाए और सैन्य बल द्वारा ही यह संभव था।


पश्चिमी शक्तियों के साथ असमान सधियों के कारण भी जापान में सैन्यवाद का विकास हुआ। पश्चिमी शक्तियों द्वारा आरोपित संबंधों को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक था कि जापान एक शक्तिशाली औद्योगिक और सैनिक राष्ट्र बने। कोरिया, मंचूरिया और चीन में जापान की रूचि थी। आर्थिक और सामरिक दृष्टि से ये क्षेत्र जापान के लिए अति महत्वपूर्ण थे। इसीलिए 1894 से 1905 ई० तक जापान ने दो युद्ध किए एक चीन से और दूसरा रूस के साथ इन युद्धों में मिली सफलता में जापानी सैन्यवाद को प्रोत्साहित किया। सैन्यवाद के बल पर ही जापान 1909 ई० तक दक्षिण मंचूरिया, लिआयोतुंग प्रायद्वीप और कोरिया पर आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों से मिलकर जापान की गतिविधि सुदूरपूर्व में बढ़ी रही। विशेषकर, जापान जर्मन क्षेत्रों को हथियाने में लगा रहा।


प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जापान का सैन्य बल कुछ धीमा पड़ गया; क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों ने उसकी सैनिक शक्तियों पर वाशिंगटन-सम्मेलन में कुछ रोक लगाई और जापान राष्ट्रसंघ का सदस्य भी बना।


1920-30 में जापानी सैन्यवादी और राष्ट्रवाद का पूर्ण उत्कर्ष हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध तक बड़े आक्रामक ढंग से चलता रहा। जापान में उग्र राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के पूर्ण उत्थान का एक स्पष्ट कारण आर्थिक था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय की आर्थिक समृद्धि 1920 ई० के आसपास समाप्तप्राय होने लगी थी। जापानी कृषि में मंदी छा गई थी। यह मंदी और व्यापक रूप से छाई जब 1929-30 की विश्वमंदी का असर जापान पर भी पड़ा। जापानी निर्यात पर इसका खराब असर पड़ा। उसके रेशम-व्यापार बिल्कुल नष्ट हो गए। इस संकट की घड़ी में आर्थिक समस्या का समाधान सैन्यवादी ढंग से हो सकता था। 


मेईजी पुनर्स्थापन के समय (1867 ई०) से जापान की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई। तीन करोड़ की जनसंख्या 1930 ई० में साढ़े छह करोड़ हो गई। इस स्थिति में जापान की खाद्यान्नों का आयात करना पड़ रहा था। अमेरीका की संरक्षणवादी नीति से जापान के निर्यात ठप्प पड़ते जा रहे थे। अंततः जापान विस्तृत आर्थिक क्षेत्रों को बनाना चाहता था। इस विचार के फलस्वरूप जापान में 'संयुक्त समृद्धि क्षेत्र' के नारे लगाए गए। इस विचार को बल इसलिए मिला कि जापानियों के लिए अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया एवं आस्ट्रेलिया में बसने पर रोक लगा दी गई थी। इस प्रकार, इस बात ने जोर पकड़ लिया कि शक्ति-प्रयोग से क्षेत्र विस्तृत करने के अलावा जापान के पास कोई चारा नहीं रह गया है।


इस आर्थिक संकट के बावजूद जापान का विशाल व्यावसायिक संघ जैवात्सु - Zaibatsu) भयंकर मुनाफा कमा रहा था। इस संघ की साँठगाँठ से तत्कालीन जापानी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार में लीन रहे। भ्रष्टाचार के विभिन्न कांडों के प्रकाश में आने के कारण राजनीतिकः दलों तथा पार्टी सरकार को नहीं पूरी की जा सकने वाली क्षति हुई। जनता का राजनीतिक दलों तथा पार्टी सरकार पर से विश्वास उठ गया। वस्तुतः राजनैतिक दलों पर सामान्य जनता- ग्रामीण तथा शहरी दोनों के हितों की अवहेलना के लिए प्रहार किया जाने लगा।


तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक वातावरण में यह अवश्यम्भावी हो गया था कि जापानी सैन्यवाद को जापानी जनता से भी प्रोत्साहन मिले। 1930 ई० में जापानी प्रधानमंत्री ने लंदन नेवेल कॉफ्रेंस (Londan Naval Conference) के निर्णय के अनुसार जापानी नौसेना में कटौती करना स्वीकार कर ली थी। इसके बाद केंटो सरकार ने सेना को कम करने की बात स्वीकार कर ली थी। इसी समय सैनिक नेताओं ने चीन पर आक्रमण करने की मांग की। सेना के जवान अधिकतर सरल ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते थे। उनके हृदय में इसीलिए भ्रष्ट पार्टी राजनीतिज्ञों के लिए कोई इज्जत नहीं थी।


बढ़ते हुए आर्थिक बोझ और बदलते हुए राजनीतिक परिवेश में कुछ उग्र राष्ट्रीय दल भी पैदा हो गए थे जो पार्टी सरकार का प्रतिरोध करते थे। इन अतिवादी दलों के अनुसार उदारवादी पार्टी सरकार जापानी परंपरा के विरूद्ध थी। वस्तुतः ऐसी दलें भी कड़े नीतिज्ञों का ही समर्थन करती थी। 1928-32 में जापानी सेना के जवान कुछ सेनापतियों से मिलकर सरकार विरोधी हिंसा करने लगे। मंचूरिया में स्थित जापानी क्वातुंग सेना भी अपना निर्णय स्वयं लेने लगी और टोकियो सरकार का आदेश मानने से इनकार कर दिया। सितंबर 1931 की मंचूरिया घटना के उपरांत मुकदेन क्षेत्र पर सेना छा गई और बाद में समस्त मंचूरिया पर टोकियो की असैनिक सरकार अपने सैनिकों को मंचूरिया में नियंत्रण करने में असफल रही। इसी समय दल मंत्रिमंडलों की समाप्ति हो गई और उनकी जगह राष्ट्रीय एकता का एक मंत्रिमंडल कायम किया गया। इस मंत्रिमंडल में सैनिक नेताओं का ही प्रभाव था और इसे कंट्रोल फैक्शन (Control Faction) के नाम से जाना गया। कंट्रोल फैक्शन अपनी राजनीतिक गतिविधियों में थोड़ा सजग था। सैनिकों ने सेना के उपद्रवी नौजवानों को नियंत्रित करना चाहा। कंट्रोल फैक्शन की विदेश नीति पहले जैसी ही थी। इस नई सरकार ने मंचूरिया में सेना की भूमिका को स्वीकृति दे दी। मंचूरिया में स्थित जापानी सेना ने एक कठपुतली सरकार भी कायम कर ली थी जिसे 'मंचूकुओं' के नाम से जाना जाता था। बढ़ती हुई सैन्यवादी प्रवृत्ति के इसी अवसर पर राजनीतिक दलों ने भी भयभीत होकर अपने संगठनों को स्वयं भंग कर दिया और उसके स्थान पर सभी दलों ने सेना के नेतृत्व में एक 'साम्राज्य- सहायक संघ' बनाने का निर्णय लिया।


इस प्रकार जापान की सरकार सैन्यवादियों के हाथ में चली गई। सैन्यवादियों की इच्छा के विरूद्ध कोई जा नहीं सकता था क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने से जापान को क्षेत्र विस्तार का मौका मिला था। इस मौके का लाभ जापानी समाज के हर तत्व जैसे जैबाब्सु, कृषक, श्रमिक आदि उठाना चाहते थे। इसीलिए किसी तत्व ने सैन्यवादी नीति का प्रतिरोध नहीं किया।


एक बार जापान में जब सैन्यवाद स्थापित हो गया तब इस शासन के अधीन कई हिंसात्मक घटनाएँ घटीं। 1932 ई० से नौसैनिक अधिकारियों का प्रमुख राजनीतिज्ञों पर प्रहार शुरू हुआ। 1936 ई० में जापानी सेना की एक टुकड़ी ने टोकियो में विद्रोह किया। जब जापानी सेना मंचूरिया में मंचुकूओं सरकार बनाई थी जब राष्ट्रसंघ ने मंचूरिया पर जापानी आधिपत्य का प्रतिरोध किया था। इसके फलस्वरूप मार्च 1933 में जापान राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्यागकर मंचूरिया के खनिज पदार्थों का शोषण करने लगा। इसके पूर्व 1932 ई० में ही चीन में जापानी माल का बहिष्कार किया गया विरूद्ध 70 हजार जापानी सेना शंघाई में उतार दी गई थी, परंतु राष्ट्रसंघ के कड़े विरोध से जापानी सेना वहाँ रह नहीं सकी थी। इस असफलता का मुआवजा जापान ने जेहोल (Jehol) में घुसपैठी करके लिया। जुलाई, 1937 में जापानी सेना ने बीजिंग के निकट चीनी सेना पर आक्रमण किया जिससे 'चीनी घटना' प्रारंभ हुई। जल्दी ही जापानी सेना ने नानकिंग, हाँवकाऊ और कैंटन पर कब्जा कर लिया। अमेरिका का जापान के प्रति ठीक रवैया नहीं था। दिसंबर, 1941 के पर्ल बंदरगाह पर बमबारी के फलस्वरूप जापान के विरोध में अमेरिका सक्रिय हो गया। उसने जापानी साम्राज्यवाद पर अंकुश लगा देने का निश्चय किया। 


पर्ल बंदरगाह की सफलता से प्रोत्साहित होकर जापानी सेना तीव्र गति से दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकतर भाग पर छा गई। जनवरी, 1942 को फिलीपाइंस पर जापान ने कब्जा कर लिया। मई, 1942 में कैरेजिडोर को उसने जीत लिया। इसी वर्ष सिंगापुर पर जापान का अधिकार हो गया। 1942 ई० में ही इंडोनेशिया और रंगून को उसने जीत लिया।


अन्ततोगत्वा सुदूरपूर्वं एवं प्रशांत महासागर में अमेरिकी शक्ति के प्रयोग से यह स्पष्ट हो चला था कि जापान की हार निश्चित थी। जापान के सैन्यवादी इस स्थिति को स्वीकारने से इनकार करते रहे, किन्तु अमेरिका ने 6 और 9 अगस्त को हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिया। परमाणु बमों के विस्फोट से जापानी सैन्यवाद की महत्वाकांक्षाओं का अंत हो गया।


The rise of Militarism in Japan
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Thursday, 14 April 2022

Ashoka's 'Dhamma' and Propaganda Measures

अशोक भारतीय इतिहास में न सिर्फ विजेता एवं कुशल प्रशासक के रूप में विख्यात है, बल्कि वह स्वयं अपने जनसाधारण के आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रयत्नशील था। कलिंग युद्ध के पश्चात उसने मानव कल्याण की तरफ ध्यान दिया। अशोक ने जिस धार्मिक विचार का प्रतिपादन किया, वह 'धम्म' (Dhamma) के नाम से जाना जाता है। उसके प्रचार एवं प्रसार के लिए अशोक ने अनेक उपाय किए।

धम्म का स्वरूप (Nature of Dhamma ) : अशोक के धम्म का स्वरूप विद्वानों के बीच एक मतभेद का विषय है। इस सम्बन्ध में मुख्यतः दो धारणाएं - कुछ विद्वान इसे बौद्ध धर्म मानते हैं तो कुछ दूसरे विद्वान इसे अशोक की खोज मानते हैं। कुछ विद्वान उसे जैन धर्मावलम्बी भी मानते हैं। डॉ० आर० सी० भंडारकर के मत में अशोक का 'धम्म' धर्मनिरपेक्ष बौद्ध धर्म था। कुछ विद्वान अशोक के धम्म को बौद्ध धर्म का ही परिवर्तित स्वरूप मानते हैं।

परन्तु बौद्ध धर्म से समानता रहने के बावजूद अशोक के 'धम्म' में बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की चर्चा नहीं की गयी है। इसमें "चार आर्य सत्य" अष्टांगिक मार्ग या निर्वाण का उल्लेख नहीं मिला है। अशोक न तो अपने धम्म के लिए संघ की व्यवस्था करता है और न ही भिक्षुक का जीवन व्यतीत करने को कहता है। अतः अनेक समानताओं के बावजूद अशोक का 'धम्म' बौद्ध धर्म से भिन्न है। इसलिए अनेक विद्वानों का विचार है कि अशोक का 'धम्म' किस
खास सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित नहीं था बल्कि वह सभी भारतीय धर्मा के लिए समान था।

इस प्रकार अशोक के धम्म की तुलना अकबर के दीन-ए-इलाही से कर सकते हैं। अशोक ने सभी धर्मों में प्रचलित बातों को अपना लिया एवं मानव कल्याण के लिए उसका प्रचार किया। इस अर्थ में अशोक का 'धम्म' कोई धर्म न होकर मानव के क्रियाकलापों को नियंत्रित करने वाला रास्ता था, यह वह मार्ग था जिसका पालन करने से मानव को स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती थी। अशोक के धम्म की पृष्ठभूमि : यद्यपि व्यक्तिगत तौर पर अशोक बौद्ध धर्म को मानने वाला था, परन्तु जनता के लिए उसने अपने धम्म का प्रचार किया, बौद्ध धर्म का नहीं। इस धम्म की स्थापना के पीछे कई कारण थे

अशोक की धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाला दूसरा कारण यह था कि हिन्दू धर्म की कुरीतियों के चलते जैन एवं बौद्ध धर्म का अच्छा प्रसार हो चुका था। ये धर्म वैदिक धर्म से कम कठोर थे, अतः जनता में उनका अच्छा प्रभाव था। धार्मिक आन्दोलनों ने सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दिया था। ऐसी स्थिति में टकराव की सम्भावना थी। इसको रोकने तथा सामाजिक एकता बनाये रखने के लिए तथा जनसाधारण की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए ही अशोक ने 'धम्म' का आविष्कार किया। इसके बहुत व्यावहारिक लाभ थे।

राजनीतिक दृष्टिकोण से भी 'धम्म' आवश्यक था। अशोक के समय तक मौर्य साम्राज्य का काफी विस्तार हो चुका था। इस विशाल साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न जातियाँ एवं राजनीतिक इकाइयाँ थी। इन सभी को बाँध कर रखना एक कठिन कार्य था। इन सब कारणों के चलते अशोक ने 'धम्म' का आविष्कार किया एवं इसके प्रचार के लिए अनेक उपाए किए। अपने 'धम्म' का आधार उसने बौद्ध धर्म को इसलिए बनाया क्योंकि उस समय यह सबसे अधिक प्रचलित था एवं इसमें जटिलता नहीं थी।

धम्म के प्रचार के उपाय : अशोक एक सिद्धान्तवादी की तरह सिर्फ 'धम्म' की व्याख्या करके चुप नहीं बैठ गया बल्कि धम्म प्रचार के लिए उसने अनेक उपाय किये।

अपने धर्म के प्रचार के सन्दर्भ में अशोक ने प्रधान स्थान धर्म श्रवण को दिया। यह घोषणा राजकर्मचारियों एवं जनसाधारण दोनों के मध्य करवायी गयी। इसके लिए पुरूषों एवं राजुकों को आवश्यक निर्देश दिए गए। तृतीय शिलालेख में अशोक ने यह आज्ञा भी दी कि उसके साम्राज्य में सर्वत्र मुक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षो पर धर्मानुशासन के लिए निकलें। इस धर्मानुशासन के लिए अशोक ने दो उपाए किए-धर्म स्तंभों की स्थापना एवं धर्म महामात्रों की नियुक्ति |

अशोक ने विभिन्न स्थानों पर (प्रमुख मार्गो पर शिलाओं के स्तम्भ पर अपने विचारों को लिपिबद्ध करवाया जिससे जनसाधारण अशोक के विचारों को जान सके और उनका पालन कर सके। अशोक के अभिलेखों की संख्या काफी बड़ी है। इनसे अशोक के धार्मिक विचारों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इन अभिलेखों के खुदवाने का यह भी उद्देश्य था कि ये चिरस्थायी हो और उसके उत्तराधिकारी इनका अनुसरण कर सके।

धम्म प्रचार के लिए अशोक ने एक मौलिंक कार्य किया। यह था धर्म महामात्रों की नियुक्ति। अपने राज्याभिषेक के 13 वे वर्ष में अशोक ने इन्हें नियुक्त किया। धार्मिक क्षेत्र में इनकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। इतना ही नहीं, अशोक ने व्यक्तिगत जीवन को भी धर्मानुकूल बना लिया। उसने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया। महल में पशु-वच कम करवा दिया, दान और सार्वजनिक हित के लिए काम किया। हिसापूर्ण समारोहों को बन्द करवा दिया तथा धार्मिक आयोजन एवं समारोह मनाना प्रारंभ किया। विविध प्रदर्शनों में भी धर्म की वृद्धि हुई। इन प्रदर्शनों में विमान दर्शन, हस्तिदर्शन, अग्निकन्ध एवं अन्य, "दिव्य रूप" के दर्शन कराए जाते थे। अशोक ने धर्म यात्रा प्रारम्भ की। अशोक ने अपने साम्राज्य के बाहर भी धर्म का प्रचार किया। उसके अभिलेखों में दक्षिण के राज्यों एवं विदेशी शासकों का उल्लेख मिलता है जहाँ अशोक ने धर्म प्रचार हेतु अपने दूत भेजे। साथ-ही-साथ अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी प्रयत्न किये। उसी समय में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध सभा हुई जिसमें महेन्द्र एवं संघमित्रा (अशोक के पुत्र-पुत्री) को श्रीलंका में प्रचार के लिये भेजा गया। प्रो० योगेन्द्र मिश्र का कहना है कि अशोक के प्रचार ने बौद्ध-धर्म को विश्वधर्म में परिवर्तित कर दिया। यद्यपि अशोक का धर्म (धम्म) बौद्ध नहीं था, फिर भी उसके प्रचारक जब बाहर गये होंगे तब बाहर वालों ने उन्हें बौद्ध ही समझा होगा। फलतः यहूदी धर्म और ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म का जो प्रभाव पड़ा उसका श्रेय कुछ अंशी में अशोक को दिया जा सकता है।

अशोक ने इस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए। उसने मानवोचित गुणों के विकास के पालन पर जोर दिया जिससे मानव कल्याण हो सके। अशोक के धर्म की अपनी विशिष्टता है। वह जीवन के व्यवहारिक पहलू पर जोर देता था, नागरिकों में सामाजिक नैतिकता का विकास करना चाहता था।

Ashoka's 'Dhamma' and Propaganda Measures
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Friday, 4 March 2022

Achievements of Chandragupta Maurya

ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मगध साम्राज्य की बागडोर नंदवंश के हाथों में चली गयी । नन्दवंश के अन्तिम शासक धननन्द के समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ और सिकन्दर की विजय के परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के अनेक गणराज्यों का अन्त हो गया और वहाँ यूनानी शासन व्यवस्था लागू हो गयी। परन्तु 323 ई. पूर्व में सिकन्दर की अचानक मृत्यु हो जाने से यह समस्त व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और यूनानी शासक के विरुद्ध चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी तथा भारत ने यूनानी परतंत्रता का जुआ उतार फेंका। इस विद्रोह या क्रांति का नेतृत्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया और मगध में मौर्य वंश की स्थापना की।


चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति एवं वंश के बारे में विद्वानों में मतभेद है, जो कि अभी तक दूर नहीं हो पाये हैं। चन्द्रगुप्त मौग्र की जाति एवं वंश के बारे में प्रमुख मत हैं


पहले मत के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य नन्द वंश के राजा महापद्मनन्द की 'मुरा' नामक दासी का पुत्र था। इसलिए चन्द्रगुप्त एवं उसके वंशज मौर्य कहलाये। इस प्रकार मौर्य लोग शूद्र कुल के ठहरते हैं, परन्तु यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यदि चन्द्रगुप्त शूद्र कुल का होता तो चाणक्य जैसा कट्टर ब्राह्मण कभी उसका साथ न देता और न ही उसको राजा बनने देता।


दूसरे मत के अनुसार, जिसमें बौद्ध ग्रन्थ आते हैं मौर्य शब्द प्राकृत भाषा के 'मोरिय' शब्द का रूपान्तर है। 'मोरिय' क्षेत्रिय थे, जो नेपाल की तराई में 'पिप्लिवन' नामक राज्य पर शासन करते थे। 'महापरिनिर्वाण' तथा 'दिव्यावदान' बौद्ध ग्रंथों में भी चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय माना गया है।


तीसरा मत 'परिशिष्टपर्वन के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के सरदार की एक कन्या का पुत्र था, जो क्षत्रिय वंश का था।


अधिकांश इतिहासकार अब इस बात को स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय राजकुमार था। उसने जिस राजवंश की स्थापना की वह मौर्य वंश कहलाया तथा जिस काल में उनके वंशजों ने शासन किया, वह मौर्यकाल कहलाया।


चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवनृत्त


चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवनृत्त का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया गया है-


1. चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन: चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 345 ई. पूर्व में हुआ था। इसके पिता सम्भवतः अपने राज्य से शत्रुओं द्वारा भगाये जाने पर पाटलिपुत्र के समीप आकर रहने लगे थे। चन्द्रगुप्त के पिता ने नन्द राजा की सेवा में नौकरी कर ली। परन्तु नन्द राजा और चन्द्रगुप्त के पिता में अनबन होने पर नन्द राजा ने चन्द्रगुप्त के पिता को मरवा डाला। उस समय चन्द्रगुप्त माँ के गर्भ में था। चन्द्रगुप्त की माँ छिपकर पाटलिपुत्र में ही बनी रही। जब चन्द्रगुप्त कुछ बड़ा हुआ तो उसने नन्द राजा की सेना में नौकरी कर ली। अपनी योग्यता एवं साहस से वह सेना का उच्च अधिकारी बन गया। वह जनता में लोकप्रिय हो गया जो कि नन्द शासक को अच्छा नहीं लगा और उसने चन्द्रगुप्त की हत्या करवाने की सोची। चन्द्रगुप्त को इस बात का पता लग गया और वह पाटलिपुत्र से भाग निकला। इस घटना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के मस्तिष्क में नन्द वंश को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय उत्पन्न कर दिया।


2. चाणक्य से मित्रता : इसी समय चन्द्रगुप्त की मित्रता चाणक्य नामक एक विद्वान ब्राह्मण से हुई। चाणक्य का भी नन्द राजा के हाथों घोर अपमान हो चुका था। इस पर चाणक्य ने भी नन्द वंश का अन्त करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य को उसकी योजना में उसको सहयोग देने वाला साथी मिल गया।


3. नन्दवंश के विरुद्ध विद्रोह अग्नि भड़काना : चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य ने नन्द राजा के विरुद्ध विद्रोह भड़काना तथा नन्द राजा को पराजित करने के साधन जुटाना प्रारम्भ कर दिया। तैयारियां पूरी करने के बाद उन्होंने मगध पर आक्रमण कर दिया, जिसको नन्द राजा ने बुरी तरह विफल कर दिया। चन्द्रगुप्त और चाणक्य मगध राज्य से भाग गये। वे मगध पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगे। चन्द्रगुप्त तो बहुत बड़ा विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। चाणक्य पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेशों की कमजोरियों को खूब जानता था। उसे आशंका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारी के हाथों पड़ सकता है। अतएव इस प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर वह एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करना चाहता था।


4. सिकन्दर की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न : नन्द राजाओं पर आक्रमण करने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर के पास गया। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतंत्र विचारों के कारण सिकन्दर उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मरवाने की आज्ञा दे दी, परन्तु चन्द्रगुप्त किसी प्रकार वहाँ से बच निकला। अब तो उसने नन्द राजाओं के साथ-साथ यूनानियों को भी भारत से खदेड़ने का निश्चय कर लिया।


5. चन्द्रगुप्त मौर्य एक विजेता के रूप में पंजाब पर अधिकार : अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की जनता को विदेशियों के विरुद्ध भड़काना आरम्भ किया। सिकन्दर के भारत से चले जाने के पश्चात् भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। चन्द्रगुप्त ने इन विद्रोहियों का नेतृत्व किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना प्रारम्भ किया। यूनानी सैनिक भारत छोड़कर भाग गये और जो यहाँ रह गये, उनको मरवा दिया गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना आधिपत्य कर लिया। डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि "इस प्रकार चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में भारतीय विद्रोह को सफलता प्राप्त हुई और पंजाब तथा सीमा प्रान्त चन्द्रगुप्त के अधिकार में आ गए।" 321 ई. पूर्व तक या इसी वर्ष में झेलम से लेकर सिन्धु तक का प्रदेश भी यूनानियों से छीन लिया गया। इसकी पुष्टि 321 ई. पूर्व में यूनानी सेनानायकों के मध्य सम्पन्न ट्रिपैरेडिसस की संधि से भी होती है। इसके कारण इसी वर्ष सिन्धु में नियुक्त क्षत्रप पैथान को भी हटा लिया गया। इस प्रकार सिन्धु और पंजाब पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया।


6. मगध राज्य पर आक्रमण : पंजाब को अपने अधिकार में करने के पश्चात् उसने मगध राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसकी सेना आगे बढ़ती हुई पाटलिपुत्र के निकट पहुँच गई। नन्द राजा धननन्द की पराजय हुई और वह युद्ध में मारा गया। अब 322 ई. पूर्व में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने उसका राज्याभिषेक कर दिया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने इस संबंध में लिखा है कि 323 ई. पूर्व की जून में सिकन्दर की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद यवन शक्ति का विध्वंस और नंदों की पराजय सिकन्दर की मृत्यु के दो-तीन वर्षे के भीतर ही संपादित हो चुकी होगी। अतः चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि हम 321 ई. पू. रख सकते हैं। डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ई. पूर्व में मगध की गद्दी पर बैठा अधिकांश विद्वान भी चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि 322 ई. पूर्व मानते हैं।


7. पश्चिम भारत के प्रदेशों पर विजय : चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र तक के सभी प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की थी। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है। कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में शामिल था। यहाँ उसने पुष्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था और पुष्यगुप्त ने ही सुदर्शन नाम की झील बनवाई थी।


8. दक्षिण भारत पर विजय : अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी अधिकार किया था। अशोक का साम्राज्य मैसूर तक फैला हुआ था। चूंकि अशोक ने कलिंग के अतिरिक्त अन्य किसी प्रदेश पर विजय प्राप्त नहीं की, इसलिए दक्षिणी भारत की विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त के दिया जा सकता है।


9. सेल्यूकस से संघर्ष भारत के विभिन्न प्रदेश जीतने के पश्चात् चन्द्रगुप्त का युद्ध सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर से हुआ। 305 ई. पूर्व में सिन्धु नदी के तट पर चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सेल्यूकस की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें सेल्यूकंस की पराजय हुई और विवश होकर उसको चन्द्रगुप्त से सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह भी चन्द्रगुप्त से कर दिया। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य को काबुल, कन्धार, हिरात तथा बिलोचिस्तान के प्रदेश दे दिये। उसने चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज नामक अपना राजदूत भी रख दिया। चन्द्रगुप्त ने उपहारस्वरूप 500 हाथी सेल्यूकस को दिये।


10. अन्य विजयें : रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन था। यहाँ उसने पुण्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त अवन्ति पर भी चन्द्रगुप्त मौर्य का अधिकार था। अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी विजय प्राप्त की थी। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक ने केवल कलिंग पर ही विजय प्राप्त की थी, अतः कश्मीर पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही अधिकार किया था। नेपाल और बंगाल भी चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन थे। महास्थान अभिलेख से बंगाल पर चन्द्रगुप्त मौर्य के आधिपत्य की पुष्टि होती है।


11. चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार : अनेक विजय प्राप्त करके चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य की सीमायें उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में तिनावली तक फैला दीं। इतना विशाल एकछत्र साम्राज्य भारत में पहले कभी स्थापित नहीं हुआ था। डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि “चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य हिन्दुकुश से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर मैसूर तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान के प्रदेश पंजाब, सिन्धु, कश्मीर, नेपाल, गंगा, यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, कलिंग, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी भारत का मैसूर तक का प्रदेश सम्मिलित था।"


12. मृत्यु : चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष शासन किया। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्मावलम्बी था, पर अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उसने जैन धर्म अपना लिया, फिर भी अन्य धर्मों के प्रति वह उदार और सहिष्णु था। अन्त में, उसने जैन साधु की भाँति उपवास और तप करके देह त्याग दी।


मूल्यांकन : डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, "मौर्य साम्राज्य का अगमन भारतीय इतिहास की एक अपूर्व घटना है। जिस कठिन समय में इस वंश ने अपनी नींव को दृढ़ किया, उस समय को देखकर तो सचमुच इसका स्थान बहुत उँचा हो जाता है। वह समय संकट का था और सिकन्दर का भारत पर आक्रमण हो चुका था।"


डॉ० वी० ए० स्मिथ के अनुसार, "मौर्यो के आगमन के साथ इतिहास के क्षेत्र में भी प्रकाश की ज्वलन्त किरणें फैलने लगती है। 18 वर्षों का लम्बा समय लगाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मकदूनिया के सिपाहियों को भारत की सीमा से खदेड़ा, विशेषकर पंजाब और सिन्ध की भूमि से उन्हें बाहर धकेल दिया। सेल्यूकस की शक्ति को उसने क्षीण कर दिया और स्वयं उत्तरी भारत का निर्विवाद सम्राट बना। अरियाना प्रदेश के बहुत बड़े भाग पर भी उसका अधिकार था। ये सभी विशेषतायें उसे इतिहास के महानतम और सफल शासकों के बीच स्थान देती है।"


Achievements of Chandragupta Maurya
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Saturday, 5 February 2022

Consequences of the Revolution of 1857

1857 ई. को क्रान्ति के परिणाम - यद्यपि 1857 की क्रान्ति असफल रही, परन्तु अपने परिणामों एवं प्रभावों को दृष्टि से यह अत्यधिक महत्वपूर्ण थी। डॉ. आर. सी. मजूमदार का कथन है कि "सन् 1857 का महान विस्फोट भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन लाया।" संक्षेप में 1857 ई. की क्रांति के निम्नलिखित परिणाम हुए-

1. कम्पनी शासन का अन्त: 2 अगस्त, 1858 को ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार भारत में कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया गया तथा भारत का सम्पूर्ण शासन ब्रिटेन के सम्राट को सौंप दिया गया। बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल तथा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स समाप्त कर दिए गए तथा इनके स्थान पर एक भारत सचिव की नियुक्ति को गई तथा उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक भारतीय परिषद् बनाई गई। 

2. सुधारों तथा परिवर्तनों की घोषणा: 1858 में महारानी विक्टोरिया का एक घोषणा पत्र जारी किया गया जिसके अनुसार घोषित किया गया कि भविष्य में ब्रिटिश सरकार भारतीय नरेशों के राज्यों को हड़पने का प्रयास नहीं करेगी तथा उनके अधिकारी एवं मान-मर्यादा की रक्षा करेगी तथा देशी नरेशी एवं नवाबों के साथ जो समझौते किये गए है, उनका ब्रिटिश सरकार आदर करेगी। यह भी घोषित किया गया कि धार्मिक सहिष्णुता तथा स्वतंत्रता की नीति का पालन किया जायेगा। भारतवासियों के धार्मिक रीति-रिवाजों एवं विश्वासों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। इस घोषणा पत्र में यह भी कहा गया कि भारतीयों को बिना किसी जाति तथा रंगभेद के सरकारी नौकरियां दी जायेगी तथा भारतीयों के साथ स्वतंत्रता का व्यवहार करते हुए उनकी भलाई के लिए कार्य किये जायेंगे। भारतीय नरेशी को पुत्र गोद लेने का अधिकार भी दिया गया।

3. सैनिक नीति में परिवर्तन: 1857 की क्रांति ने ब्रिटिश सरकार की सैनिक नीतियों को बड़ा प्रभावित किया। सैनिक क्षेत्र में निम्नलिखित परिवर्तन हुए-

(i) अंग्रेज सैनिकों की संख्या में वृद्धि अंग्रेजो को अब भारतीय सेना पर बिल्कुल: विश्वास नहीं रहा। अत: अंग्रेज सैनिकों की एक विशाल सेना रखने का निश्चय किया गया। भारत में अंग्रेज सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई। 1856 में अंग्रेज सैनिकों की संख्या 45.332 थी परन्तु 1862 में अंग्रेज सैनिकों की संख्या बढ़कर 91,897 हो गई। इसके विपरीत भारतीय सैनिकों की संख्या में कमी की गई।

(ii) तोपखाने पर अंग्रेजों का नियन्त्रण: 1857 की क्रान्ति के बाद तोपखाना पूर्णतया अंग्रेज सैनिकों के नियंत्रण में रखा गया। भारतीय सैनिकों के हाथों में न तो गोला-बारूद ही रहने दिया गया और न ही उन्हें उत्तम अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित किया गया।

(iii) जातीयता तथा साम्प्रदायिकता के आधार पर भारतीय सेना का गठन: जातीयता एवं साम्प्रदायिकता के आधार पर भारतीय सेना का पुनर्गठन किया गया। भारतीया को गोरखे, मराठे, राजपूत, जाट, सिक्ख, डोगरे, पठान आदि में बाँट दिया गया ताकि उनमें राष्ट्रीयता तथा एकता की भावना विकसित न हो सके। भारतीय सैनिकों को दूर-दूर क्षेत्रों में भेजा गया ताकि स्थानीय लोगों से उनका सम्पर्क स्थापित न हो सके।

4. अंग्रेजों तथा भारतीयों के बीच कटुता: 1857 की क्रांति ने भारतीयों और अंग्रेजो के बीच कटुता उत्पन्न कर दी। अंग्रेजों ने क्रान्ति का दमन करने के लिए जो बर्बरतापूर्ण कार्य किये थे उनसे भारतवासियों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। वे अंग्रेजों के अत्याचारों को कभी नहीं भुला सके। दूसरी ओर अंग्रेज भी भारतवासियों को विश्वासघाती समझने लगे। इस प्रकार दोनों जातियाँ एक-दूसरे को सन्देह तथा घृणा की दृष्टि से देखने लगी। इस घृणा और अविश्वास का देश की राजनीति तथा प्रशासन पर बुरा प्रभाव पड़ा।

प्रो. गुरुमुख निहालसिंह का कथन है कि 'ब्रिटिश भारत के इतिहास में 1857 क विद्रोह ने एकदम काया पलट दी। शासकों और शासितों के संबंध पूरी तरह बदल गए। अंग्रेजों के हृदय में भारतवासियों के प्रति अविश्वास भर गया और जनता के प्रति नीति बदल गई।'

5. 'फूट डालो और शासन करो' की नीति: अंग्रेज शासकों ने भारत में अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए फूट डालो और शासन करो' की नीति को अपनाना उचित समझा। अतः उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डालने का प्रयास किया। उन्होंने भारतीय नरेशों, जमीदारों तथा सामन्तों को विशेष पुरस्कार, उपाधियां आदि प्रदान की ताकि वे ब्रिटिश सरकार के प्रति स्वामीभक्त बने रहे। अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो" की नीति के कारण भारतीय भारतीय के बीच खाई उत्पन्न हो गई।

6. हिन्दुओं और मुसलमानों में मतभेद: 1857 की क्रांति में हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने संयुक्त रूप से भाग लिया परन्तु क्रांति की विफलता के लिए दोनी जातियाँ एक-दूसरे को उत्तरदायी ठहराने लगी। मुसलमानों ने क्रांति में हिन्दुओं से अधिक उत्साह दिखाया। अतः क्रान्ति के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति कठोर रुख अपनाया जिससे हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच दरार उत्पन्न हो गई। अंग्रेजी ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति में हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच उत्पन्न हुई कटुता को और बढ़ा दिया।

7. प्रशासन पर प्रभाव: 1857 की क्रान्ति के बाद भारतीयों को प्रशासन में बलको तथा सहायकों के पदों पर नियुक्त किया जाने लगा। अंग्रेजी सरकार यही चाहती थी कि ये भारतीय कर्मचारी अंग्रेजों के स्वामीभक्त तथा आजाकारी बने रहे। उसकी नीति सफल रहो तथा भारतीय कर्मचारी अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान बन गए। इससे अंग्रेजी सरकार का प्रशासनिक दृष्टि से भारत पर कब्जा मजबूत हो गया तथा जिन्होंने विरोध किया, उन्हें अंग्रेजी ने कुचलने का निश्चय कर लिया। उन्होंने भारत में धर्म के नाम पर झगड़े करवाना शुरू किया।

8. राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन: 1857 की क्रान्ति ने भारतीय राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया। : इस क्रांति ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया और उन्हें एकता तथा संगठन का पाठ पढ़ाया। नाना साहब, झांसी की रानी, तात्या टोपे, बहादुरशाह, कुंवर सिंह आदि के त्याग और बलिदान से भारतीयों को प्रेरणा मिली और उनमें देशभक्ति, साहस आदि की भावनाएं विकसित हुई। इस प्रकार 1857 की क्रान्ति ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए पृष्ठभूमि का कार्य किया।

9. भारतीयों को लाभ: 1857 की क्रांति से भारतीय लाभान्वित भी हुए। सेपेल गिफिन का कथन है कि 1857 के विद्रोह से अधिक भाग्यशाली घटना अन्य कोई नहीं घटी। इसने भारतीय गगनमण्डल को अनेक शकाओं से मुक्त कर दिया। अशोक मेहता का कथन है कि "1857 की क्रान्ति ने हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रवाह को बदल दिया।" अपेजा ने क्रांति के दौरान भारतवासियों पर जो भारी अत्याचार किये थे, उनसे भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति अविश्वास व आक्रोश और अधिक बढ़ गया। इस स्थिति ने भारत में राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया। 1857 की क्रांति के दमन के पश्चात् अंग्रेजी सरकार का ध्यान देश की आन्तरिक दशा सुधारने की और उन्मुख हुआ। भारत के इतिहास में यहीं से संवैधानिक विकास का सूत्रपात हुआ और धीरे-धीरे भारतीयों को अपने देश के शासन में भाग लेने का अवसर मिलने लगा। वास्तव में 1857 से भारत में आधुनिक युग का प्रारम्भ होता है। अंग्रेजों को 1861 में अधिनियम पास करके भारतवासियों को शासन तथा कानून निर्माण की प्रक्रिया में भागीदार बनाना पड़ा, जो 1857 ई की क्रांति की विशिष्ट उपलब्धि थी।

10. मुगल वंश का अन्त: 1857 की क्रांति के फलस्वरूप भारत में मुगल वंश का अन्त हुआ। मुगल सम्राट बहादुरशाह को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया जहाँ 1862 में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के साथ ही भारत पर मुगलों के शासन का वैधानिक एवं व्यावहारिक रूप में अन्त हो गया।

Consequences of the Revolution of 1857
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Sunday, 30 January 2022

Reasons for the Revolution of 1857

सन् 1857 की भारतीय महान क्रांति किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं थी। वास्तव में इन कारणों की नीव उतनी गहरी और पुरानी है जितना पुराना भारत में अंग्रेजी राज्य यथार्थ में भारत में अंग्रेजों के आगमन के साथ ही इन कारणों का उदय होना आरम्भ हो गया था। दीर्घकाल से ही घृणा और अशान्ति की अग्नि भीतर ही भीतर सुलग रही थी। कुछ तात्कालिक कारणों से उसने सन् 1857 ई० में उम्र रूप धारण कर लिया।


वस्तुतः अंग्रेजी की राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सामाजिक नीतियों के कारण भारतवासियों में तीव्र असंतोष व्याप्त था। अतः 1857 में विभिन्न कारणों से प्रेरित होकर भारतवासिय ने अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यही घटना 1857 ई० की क्रान्ति के नाम से प्रसिद्ध है। 1857 की क्रांति के निम्नांकित कारण प्रमुख थे-


राजनैतिक कारण (Political Causes)


1. लार्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति - गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने अपने शासन काल में विजयों, समर्पण, लैप्स की नीति तथा कुप्रन्ध आदि अनेक बहानों से अनेक भारतीय प्रदेशो को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया। परिणामस्वरूप भारतीय जनता तथा शासक अंग्रेजों के शत्रु बन गये। उनका अंग्रेजी पर से विश्वास उठ गया और वे उनसे बदला लेने के लिये आतुर हो उठे।


2. भारतीय नरेशों के प्रति दुर्व्यवहार - निःसन्देह इस समय मुगल सम्राट बहादुरशाह की स्थिति पर्याप्त रूप से शिथिल हो चुकी थी परन्तु फिर भी भारतीय जनता विशेषकर मुसलमानों के हृदयों में उनके लिये विशेष सम्मान था। जब अंग्रेजों ने उनके प्रति औपचारिक सम्मान का प्रदर्शन करना भी बन्द कर दिया तो भारतीयों में असंतोष तथा क्रोध की भावना का उदय होना स्वाभाविक ही था।


अंग्रेजी ने अनेक हिन्दू शासको विशेषकर नाना साहब तथा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्रति जो अभद्र तथा अपमानजनक व्यवहार किया उससे समस्त हिन्दू जनता अंग्रेजों की विरोधी हो गई। इसी प्रकार लैप्स की नीति के आधार पर जब झाँसी को अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बना लिया गया, तो इससे न केवल झांसी की रानी लक्ष्मीबाई वरन झाँसी की जनता आग बबूला हो उठी और उसने इस अन्याय का दृढतापूर्वक सामना करने का निश्चय किया।


3. अवध का विलीनीकरण - अवध का राज्य आरम्भ से ही अंग्रेजों के प्रति वफादार बना रहा और हर कठिनाई में वहाँ के शासक अंग्रेजों की सहायता करते रहे। जब 1856 ई० में अंग्रेजों ने कुशासन का झूठा आरोप लगाकर इस राज्य को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया तो अवध की जनता भड़क उठी तथा उसने अंग्रेजों के शासन को समाप्त करने के षडयन्त्र रचने आरम्भ कर दिये।


आर्थिक कारण (Economic Causes)


1. भारतीय साधनों का शोषण - भारत में अंग्रेजों के आगमन के उपरान्त भारतीयो की आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन दयनीय होती जा रही थी और उनके दुखों की सीमा न थी। धीरे-धीरे देश का धन देश से बाहर जाने लगा और शीघ्र ही भारत जैसा समृद्ध तथा सम्पन्न देश निर्धन देश बन गया।


2. कर मुक्त भूमि पर कर लगाना - अंग्रेजो की आर्थिक कार्यवाहियों से न केवल किसान तथा श्रमिक वर्ग ही पीड़ित थे वरन मध्यम वर्ग भी उनके कारण दुःखी हो रहा था। उन्होंने कर मुक्त भूमि पर बलात् ही कर लगा दिया। जो व्यक्ति कर देने में असमर्थ थे उनको भूमि का अपहरण कर लिया गया। अंग्रेजो की इस नीति के फलस्वरूप अनेक व्यक्ति निर्धन हो गये और अवसर आने पर उन्होंने विद्रोहियों का समर्थन किया।


3. उच्चवर्गीय भूमिपतियों का विनाश - प्रत्येक विजय के उपरान्त जब अंग्रेजो ने उस प्रदेश में नवीन भूमि व्यवस्था लागू की, तो इससे अनेक जमींदारों तथा ताल्लुकेदारों के अस्तित्व को ही संकट उत्पन्न हो गया। उनसे उनकी जागीर छीन ली गई तथा उन्हें निर्धन बना दिया गया।


4. अनेक भारतीयों का नौकरियों से वंचित होना - अनेक देशी रियासतों को अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बनाने का एक अन्य परिणाम यह हुआ कि इन रियासतों  में कार्य करने वाले अनेक सैनिक तथा असैनिक कार्यकर्ताओं तथा अनेक अवकाश प्राप्त अधिकारियों की छुट्टी कर दी गई। परिणामस्वरूप अनेक व्यक्ति नौकरी चले जाने के कारण भूखे मरने लगे। इस प्रकार के समस्त व्यक्तियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनाने में बड़ा योगदान दिया तथा विद्रोह आरम्भ होते ही वे विद्रोहियों में सम्मिलित हो गये।


5. शिक्षित भारतीयों को उच्च पद प्रदान न करना - शिक्षित भारतीयों को अच्छे वेतन वाले तथा आकर्षक पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। यही कारण था कि वे अंग्रेजो से रुष्ट थे। नागरिक सेवाओं में भारतीयों को मिलने वाला बड़े से बड़ा पद सदर अथवा अमीर का होता था, जिसका अधिक से अधिक वेतन 500/- रु० प्रतिमास होता था, जिसे 70 रु० प्रतिमास से अधिक नहीं मिलते थे। इन परिस्थितियों में शिक्षित भारतीयों का अंग्रेजों से रुष्ट होना स्वाभाविक हो था।


सामाजिक तथा धार्मिक कारण 

(Social & Religious Causes)


1. भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार - अंग्रेज भारतीयों को हब्शी तथा सुअर कहते थे और हर प्रकार से अपमानित करते थे। किसी भी अंग्रेज के किसी भी मार्ग से निकल जाने पर प्रत्येक भारतीय को खड़े होकर साहिब को सलाम करना होता था। निःसन्देह भारतीयों को इस प्रकार का व्यवहार असहनीय था। 


2. ईसाई धर्म के प्रचार के लिये निम्न स्तर के उपाय - अपने धर्म प्रचार के लिये ईसाई पादरियों ने जिन उपायो का सहारा लिया यह भारतीयों को असहनीय था। उन्होंने भारतीय देवी देवताओं, पीर-पैगम्बरी का प्रत्यक्ष रूप से निरादर करना आरम्भ कर दिया। ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिये अनेक प्रकार के प्रलोभन भी दिये गये तथा मूस, पदोनार तथा पारितोषिकों का आश्रय लेकर भी अनेक व्यक्तियों को ईसाई बनाने का प्रयास किया


3. रेलवे तथा टेलीग्राफ का प्रचलन - इस प्रकार के सन्देहपूर्ण वातावरण में लोगा ने रेल तथा टेलीग्राफ के प्रचलन का अर्थ भी उल्टा ही समझा तथा उसे उन्होंने ईसाई धर्म के प्रचार का साधन मात्र ही समझा। लोगों ने यह अफवाह फैलाई कि जो लोग ईसाई धर्म ग्रहण नहीं करेंगे उन्हें या तो तार के खम्भों से लटका दिया जायेगा अथवा रेल के इन्जन के आगे डाल दिया जायेगा।


4. ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का विरोध - पाश्चात्य शिक्षा के प्रारम्भ तथा अनेक अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना के परिणामस्वरूप ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का प्रभाव प्राय: समाप्त हो गया। उन्होंने अपनी इस अवनति के लिये अंग्रेजों को दोषी ठहराया तथा उनसे प्रतिशोध लेने की भावना से अपनी-अपनी जातियों के लोगों को अंग्रेजी तथा अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध भड़काने लगे।


5. लार्ड डलहौजी के कार्य - इस प्रकार की परिस्थितियों में लार्ड डलहौजी द्वारा धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्र में किये गये कार्यों ने अग्नि में घी का कार्य किया। लार्ड डलहौजी द्वारा पुत्र गोद लेने की अनुमति न देना लोगों को अत्यन्त बुरा लगा। प्रत्येक हिन्दू के लिये पुत्र का होना, चाहे वह प्राकृतिक हो अथवा गोद लिया, अति आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना उसको मुक्ति सम्भव नहीं। इसी प्रकार लार्ड डलहौजी की इस आज्ञा ने कि धर्म परिवर्तन करने पर भी व्यक्ति का पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार बना रहेगा, भारतीयों के हृदय में दृढ़ विश्वास बैठा दिया कि अंग्रेज उन्हें ईसाई बनाकर ही छोड़ेंगे।


सैनिक कारण 

(Military Causes)


1. भारतीय सैनिकों में असंतोष - भारतीय सैनिक भी अनेक कारणों से अंग्रेज सरकार से रुष्ट थे। उन्हें इतना कम वेतन दिया जाता था कि उनका निर्वाह भी बड़ी कठिनता से होता था। एक भारतीय सैनिक को केवल 9 रु० मासिक वेतन मिलता था इसके विपरीत एक साधारण अंग्रेज सैनिक को एक भारतीय सैनिक अधिकारी अथवा सूबेदार के बराबर वेतन मिलता था।


2. प्रथम अफगान युद्ध में अंग्रेजी गौरव को आघात - लार्ड आकलैंड के काल में लड़े गये प्रथम अफगान युद्ध में अंग्रेजों को पराजित होना पड़ा, उसने उनके अजेय होने जादू को समाप्त कर दिया। भारतीय सैनिको पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें इस बात की प्रेरणा मिली कि अंग्रेजों को भी पराजित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाने का उत्साह पैदा हो गया।


3. सेना में अनुशासनहीनता - असैनिक कार्यालयों में और अधिक कुशलता लाने के उद्देश्य से अनेक योग्य अंग्रेज सैनिक अधिकारियों को सैनिक सेवाओं से बदलकर असैनिक कार्यालयों में भेज दिया गया। अब सेना का नियंत्रण सम्भालने के लिये केवल वृद्ध अधिकारी ही रह गये. परिणामस्वरूप सेना में अनुशासनहीनता आने लगी।


4. अवध के विलीनीकरण का बंगाल पर घातक प्रभाव - ब्रिटिश कम्पनी के अधीन भारतीय सैनिकों की तीन प्रमुख टुकड़ियाँ थी, जो बंगाल, मद्रास तथा बम्बई रेजीमेण्ट के नाम से प्रसिद्ध थी। इनमें बंगाल की सेना सर्वाधिक कुशल थी। इस रेजीमेण्ट में अधिकांशतः अवध तथा उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त के ही सैनिक थे। सन् 1856 में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बनाये जाने पर बंगाल की रेजीमेण्ट क्रोध से भभक उठी। अवध आरम्भ पूर्ण रूप से ही अंग्रेजों के प्रति वफादार रहा है, अतः राज्य के विलीनीकरण सैनिकों ने से विश्वासघात माना। 


5. यूरोपीय तथा भारतीय सैनिकों की संख्या में असमानता - अंग्रेजी साम्राज्य के भारत में विस्तार के साथ-साथ इतने विशाल देश पर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से अंग्रेजी को अपनी इच्छा के विरुद्ध भारतीय सैनिकों की संख्या में वृद्धि करनी पड़ी। इसके ही जब इंग्लैण्ड क्रीमिया के युद्ध में रूस से उलझ पड़ा तो उन्हें अनेक यूरोपीय सैनिकों के अनुपात मे बड़ी असमानता दिखाई दी। भारत में अंग्रेज सैनिकों की संख्या कम रह जाने के कारण भारतीय सैनिकों के उत्साह में वृद्धि हो गई।


6. सेना का अनुचित वितरण - भारतीय तथा यूरोपीय सैनिकों की संख्या में अत्यधिक अन्तर होने के साथ-साथ उनके वितरण में भी अत्यन्त गड़बड़ी थी। सैन्य दृष्टि से लगभग सभी महत्वपूर्ण सैनिक स्थान भारतीय सैनिकों के हाथ में ही थे। कलकत्ता तथा इलाहाबाद के मध्य केवल एक ही स्थान दीनापुर में अंग्रेजों की सैनिक टुकड़ी थी। इसके अतिरिक्त इलाहाबाद, दिल्ली, कानपुर आदि महत्वपूर्ण स्थान लगभग भारतीय सैनिकों के नियंत्रण में ही थे। इस बात ने भारतीय सैनिकों में विद्रोही भावना के उत्पन्न होने में बड़ा योगदान दिया।


7. सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम - लार्ड डलहौजी के उत्तराधिकारी लाई कैनिंग ने अनेक इस प्रकार के परिवर्तन किये जिसने जले पर नमक का कार्य किया। उसके द्वारा पारित, "सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम" ने सैनिकों में रोष उत्पन्न कर दिया। इसका कारण यह था कि अब उन्हें देश-विदेश में कहीं भी कुछ करने के लिये भेजा जा सकता था। अनेक सैनिकों के लिये समुद्र पार जाना धर्म विरोधी कार्य था और इसी कारण उन्होंने इस इस कानून का दृढतापूर्वक विरोध किया।


8. एक अफवाह - साधारण तथा विशेषकर सेना में यह अफवाह जोरों से फैल रही थी कि भारत में अंग्रेजी राज्य केवल एक शताब्दी तक ही रहेगा। सन् 1757 के पलासी के युद्ध के कारण ही अंग्रेजों को भारत में राज्य मिला था। इस प्रकार 1857 में भारत में उनके शासन के सौ वर्ष पूरे होने जा रहे थे। इस कारण जनता तथा सैनिकों को विश्वास था कि अब भारत में अंग्रेजी राज्य कुछ ही समय का है। इस मनोवैज्ञानिक कारण ने भी जनता और विशेषकर सैनिकों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़का दिया।


9. तात्कालिक कारण (चर्बी वाले कारतूस) - सन् 1853 में सेना में एन्फील्ड नामक एक नई प्रकार की रायफल का प्रयोग किया गया। इस रायफल में चिकने कारतूसों का प्रयोग किया जाता था। बन्दूक अथवा रायफल में बचाने के पूर्व कारतूसा को मुँह से काटना पड़ता था। शीघ्र ही यह अफवाह फैल गई कि इन कारतूसों में गाय तथा सूअर की नर्वी का प्रयोग किया गया है। फलस्वरूप हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करना अस्वीकार कर दिया तथा जब उनसे इन कारतूसों को जबदरस्ती प्रयोग कराया जाने लगा तो उन्होंने छावनियों में विद्रोह खड़ा कर दिया। शीघ्र ही वे अंग्रेजों से रुष्ट हो गये।

Reasons for the Revolution of 1857
Reasons for the Revolution of 1857

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