जापान में सैन्यवाद का उदय
जापानी सैन्यवाद (1928-45 ) - जापान में सैन्यवाद का उग्रवादी चरण 1928 ई० के बाद प्रारंभ हुआ। इससे पूर्व सामंतों की समुराई परंपरा में जापानी सामंत सशस्त्र सेवक पालते थे। यद्यपि जापान में मेईजी-पुनर्स्थापन के बाद उदारवादी और प्रगतिशील दल-पद्धति का विकास हुआ था किंतु राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ नहीं पाया था। जापान की नई शासन-व्यवस्था में एक कुलीन सभा की स्थापना हुई थी। इसमें सेना के उच्चाधिकारियों को भी स्थान दिए गए थे। एक निम्न सदन, डाइट (Diet) की स्थापना हुई थी, परंतु इस लोकप्रिय सदन को पूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं प्राप्त थी। वास्तविक शक्ति राजा के कार्यकारिणी परिषद (Executive Council) में रखी गई थी। इस परिषद के सदस्य ऊपरी सदन के लिए जाते थे। इसमें अधिकतर जेनरोज (Genros) नामक कुलीन ही होते थे। कार्यकारिणी परिषद के सदस्य सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे न कि डाइट (Diet) के प्रति। इन्हें डाइट को भंग करने का अधिकार नहीं था। डाइट काफी प्रभावशाली था। सेना पर खर्च बढ़ाने की अनुमति केवल वही संस्था दे सकती थी। 1925 ई० तक डाइट का सामाजिक आधार अत्यधिक बढ़ गया था। इसी वर्ष से जापान के सभी बालिग पुरूषों को मतदान का अधिकार दे दिया गया था। जनता द्वारा चुने गए नेता डाइट के सदस्य होते थे।
लोकप्रिय नेताओं ने सरकार पर अपना नियंत्रण बढ़ाने का जब प्रयास किया तब सम्राट ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार सेनामंत्री सदैव वरिष्ठ सेनापति ही चुना जाएगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप जापानी मंत्रिमंडल में सेना का प्रभाव बढ़ा लोकप्रिय दल की सरकार देश में सैनिक प्रभाव को कम करना चाहती थी किंतु संविधान के अनुसार ऐसा संभव नहीं था। संविधान के अनुसार उच्च सैनिक अधिकारियों एवं ऊपरी सदन के सदस्यों का आदर करना जरूरी था।
विकसित औद्योगिकीकरण के कारण वामपंथी आंदोलन बढ़ते जा रहे थे। रूढ़िवादी और सैन्यवादी चाहते थे कि वापमंधी आंदोलन को जापानी मंत्रिमंत्रल द्वारा 'कोई प्रोत्साहन नहीं मिले। संविधान का स्वरूप ऐसा था जिसके अनुसार उदारवादी जनतांत्रिक परंपरा का विकास संभव नहीं था। जापान में विकसित अर्थव्यवस्था के कारण उदारवादी विचारधारा का विकास हुआ। विकसित अर्थव्यवस्था ने ही जापान में पूँजीवादी वातावरण बनाया। पूँजीवाद के कारण जापान साम्राज्यवादी एवं सैन्यवादी योजनाएँ बनाने लगा। जापानी व्यापार और जनसंख्या में वृद्धि होती गई। व्यापार में वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया कि जापान दूर तक अपने व्यापार क्षेत्रों को सुरक्षित रखे और बढ़ती हुई जनसंख्या को उपनिवेशों में बसाए और सैन्य बल द्वारा ही यह संभव था।
पश्चिमी शक्तियों के साथ असमान सधियों के कारण भी जापान में सैन्यवाद का विकास हुआ। पश्चिमी शक्तियों द्वारा आरोपित संबंधों को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक था कि जापान एक शक्तिशाली औद्योगिक और सैनिक राष्ट्र बने। कोरिया, मंचूरिया और चीन में जापान की रूचि थी। आर्थिक और सामरिक दृष्टि से ये क्षेत्र जापान के लिए अति महत्वपूर्ण थे। इसीलिए 1894 से 1905 ई० तक जापान ने दो युद्ध किए एक चीन से और दूसरा रूस के साथ इन युद्धों में मिली सफलता में जापानी सैन्यवाद को प्रोत्साहित किया। सैन्यवाद के बल पर ही जापान 1909 ई० तक दक्षिण मंचूरिया, लिआयोतुंग प्रायद्वीप और कोरिया पर आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों से मिलकर जापान की गतिविधि सुदूरपूर्व में बढ़ी रही। विशेषकर, जापान जर्मन क्षेत्रों को हथियाने में लगा रहा।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जापान का सैन्य बल कुछ धीमा पड़ गया; क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों ने उसकी सैनिक शक्तियों पर वाशिंगटन-सम्मेलन में कुछ रोक लगाई और जापान राष्ट्रसंघ का सदस्य भी बना।
1920-30 में जापानी सैन्यवादी और राष्ट्रवाद का पूर्ण उत्कर्ष हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध तक बड़े आक्रामक ढंग से चलता रहा। जापान में उग्र राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के पूर्ण उत्थान का एक स्पष्ट कारण आर्थिक था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय की आर्थिक समृद्धि 1920 ई० के आसपास समाप्तप्राय होने लगी थी। जापानी कृषि में मंदी छा गई थी। यह मंदी और व्यापक रूप से छाई जब 1929-30 की विश्वमंदी का असर जापान पर भी पड़ा। जापानी निर्यात पर इसका खराब असर पड़ा। उसके रेशम-व्यापार बिल्कुल नष्ट हो गए। इस संकट की घड़ी में आर्थिक समस्या का समाधान सैन्यवादी ढंग से हो सकता था।
मेईजी पुनर्स्थापन के समय (1867 ई०) से जापान की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई। तीन करोड़ की जनसंख्या 1930 ई० में साढ़े छह करोड़ हो गई। इस स्थिति में जापान की खाद्यान्नों का आयात करना पड़ रहा था। अमेरीका की संरक्षणवादी नीति से जापान के निर्यात ठप्प पड़ते जा रहे थे। अंततः जापान विस्तृत आर्थिक क्षेत्रों को बनाना चाहता था। इस विचार के फलस्वरूप जापान में 'संयुक्त समृद्धि क्षेत्र' के नारे लगाए गए। इस विचार को बल इसलिए मिला कि जापानियों के लिए अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया एवं आस्ट्रेलिया में बसने पर रोक लगा दी गई थी। इस प्रकार, इस बात ने जोर पकड़ लिया कि शक्ति-प्रयोग से क्षेत्र विस्तृत करने के अलावा जापान के पास कोई चारा नहीं रह गया है।
इस आर्थिक संकट के बावजूद जापान का विशाल व्यावसायिक संघ जैवात्सु - Zaibatsu) भयंकर मुनाफा कमा रहा था। इस संघ की साँठगाँठ से तत्कालीन जापानी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार में लीन रहे। भ्रष्टाचार के विभिन्न कांडों के प्रकाश में आने के कारण राजनीतिकः दलों तथा पार्टी सरकार को नहीं पूरी की जा सकने वाली क्षति हुई। जनता का राजनीतिक दलों तथा पार्टी सरकार पर से विश्वास उठ गया। वस्तुतः राजनैतिक दलों पर सामान्य जनता- ग्रामीण तथा शहरी दोनों के हितों की अवहेलना के लिए प्रहार किया जाने लगा।
तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक वातावरण में यह अवश्यम्भावी हो गया था कि जापानी सैन्यवाद को जापानी जनता से भी प्रोत्साहन मिले। 1930 ई० में जापानी प्रधानमंत्री ने लंदन नेवेल कॉफ्रेंस (Londan Naval Conference) के निर्णय के अनुसार जापानी नौसेना में कटौती करना स्वीकार कर ली थी। इसके बाद केंटो सरकार ने सेना को कम करने की बात स्वीकार कर ली थी। इसी समय सैनिक नेताओं ने चीन पर आक्रमण करने की मांग की। सेना के जवान अधिकतर सरल ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते थे। उनके हृदय में इसीलिए भ्रष्ट पार्टी राजनीतिज्ञों के लिए कोई इज्जत नहीं थी।
बढ़ते हुए आर्थिक बोझ और बदलते हुए राजनीतिक परिवेश में कुछ उग्र राष्ट्रीय दल भी पैदा हो गए थे जो पार्टी सरकार का प्रतिरोध करते थे। इन अतिवादी दलों के अनुसार उदारवादी पार्टी सरकार जापानी परंपरा के विरूद्ध थी। वस्तुतः ऐसी दलें भी कड़े नीतिज्ञों का ही समर्थन करती थी। 1928-32 में जापानी सेना के जवान कुछ सेनापतियों से मिलकर सरकार विरोधी हिंसा करने लगे। मंचूरिया में स्थित जापानी क्वातुंग सेना भी अपना निर्णय स्वयं लेने लगी और टोकियो सरकार का आदेश मानने से इनकार कर दिया। सितंबर 1931 की मंचूरिया घटना के उपरांत मुकदेन क्षेत्र पर सेना छा गई और बाद में समस्त मंचूरिया पर टोकियो की असैनिक सरकार अपने सैनिकों को मंचूरिया में नियंत्रण करने में असफल रही। इसी समय दल मंत्रिमंडलों की समाप्ति हो गई और उनकी जगह राष्ट्रीय एकता का एक मंत्रिमंडल कायम किया गया। इस मंत्रिमंडल में सैनिक नेताओं का ही प्रभाव था और इसे कंट्रोल फैक्शन (Control Faction) के नाम से जाना गया। कंट्रोल फैक्शन अपनी राजनीतिक गतिविधियों में थोड़ा सजग था। सैनिकों ने सेना के उपद्रवी नौजवानों को नियंत्रित करना चाहा। कंट्रोल फैक्शन की विदेश नीति पहले जैसी ही थी। इस नई सरकार ने मंचूरिया में सेना की भूमिका को स्वीकृति दे दी। मंचूरिया में स्थित जापानी सेना ने एक कठपुतली सरकार भी कायम कर ली थी जिसे 'मंचूकुओं' के नाम से जाना जाता था। बढ़ती हुई सैन्यवादी प्रवृत्ति के इसी अवसर पर राजनीतिक दलों ने भी भयभीत होकर अपने संगठनों को स्वयं भंग कर दिया और उसके स्थान पर सभी दलों ने सेना के नेतृत्व में एक 'साम्राज्य- सहायक संघ' बनाने का निर्णय लिया।
इस प्रकार जापान की सरकार सैन्यवादियों के हाथ में चली गई। सैन्यवादियों की इच्छा के विरूद्ध कोई जा नहीं सकता था क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने से जापान को क्षेत्र विस्तार का मौका मिला था। इस मौके का लाभ जापानी समाज के हर तत्व जैसे जैबाब्सु, कृषक, श्रमिक आदि उठाना चाहते थे। इसीलिए किसी तत्व ने सैन्यवादी नीति का प्रतिरोध नहीं किया।
एक बार जापान में जब सैन्यवाद स्थापित हो गया तब इस शासन के अधीन कई हिंसात्मक घटनाएँ घटीं। 1932 ई० से नौसैनिक अधिकारियों का प्रमुख राजनीतिज्ञों पर प्रहार शुरू हुआ। 1936 ई० में जापानी सेना की एक टुकड़ी ने टोकियो में विद्रोह किया। जब जापानी सेना मंचूरिया में मंचुकूओं सरकार बनाई थी जब राष्ट्रसंघ ने मंचूरिया पर जापानी आधिपत्य का प्रतिरोध किया था। इसके फलस्वरूप मार्च 1933 में जापान राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्यागकर मंचूरिया के खनिज पदार्थों का शोषण करने लगा। इसके पूर्व 1932 ई० में ही चीन में जापानी माल का बहिष्कार किया गया विरूद्ध 70 हजार जापानी सेना शंघाई में उतार दी गई थी, परंतु राष्ट्रसंघ के कड़े विरोध से जापानी सेना वहाँ रह नहीं सकी थी। इस असफलता का मुआवजा जापान ने जेहोल (Jehol) में घुसपैठी करके लिया। जुलाई, 1937 में जापानी सेना ने बीजिंग के निकट चीनी सेना पर आक्रमण किया जिससे 'चीनी घटना' प्रारंभ हुई। जल्दी ही जापानी सेना ने नानकिंग, हाँवकाऊ और कैंटन पर कब्जा कर लिया। अमेरिका का जापान के प्रति ठीक रवैया नहीं था। दिसंबर, 1941 के पर्ल बंदरगाह पर बमबारी के फलस्वरूप जापान के विरोध में अमेरिका सक्रिय हो गया। उसने जापानी साम्राज्यवाद पर अंकुश लगा देने का निश्चय किया।
पर्ल बंदरगाह की सफलता से प्रोत्साहित होकर जापानी सेना तीव्र गति से दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकतर भाग पर छा गई। जनवरी, 1942 को फिलीपाइंस पर जापान ने कब्जा कर लिया। मई, 1942 में कैरेजिडोर को उसने जीत लिया। इसी वर्ष सिंगापुर पर जापान का अधिकार हो गया। 1942 ई० में ही इंडोनेशिया और रंगून को उसने जीत लिया।
अन्ततोगत्वा सुदूरपूर्वं एवं प्रशांत महासागर में अमेरिकी शक्ति के प्रयोग से यह स्पष्ट हो चला था कि जापान की हार निश्चित थी। जापान के सैन्यवादी इस स्थिति को स्वीकारने से इनकार करते रहे, किन्तु अमेरिका ने 6 और 9 अगस्त को हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिया। परमाणु बमों के विस्फोट से जापानी सैन्यवाद की महत्वाकांक्षाओं का अंत हो गया।
The rise of Militarism in Japan |
End of Articles.... Thanks....
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