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Friday, 13 October 2023

Major Straits of Asia

एशिया की प्रमुख जलसंधियाँ

 
नाम अलग करती है जोड़ती है
बास्पोरस जलसंधि एशिया एवं यूरोप काला सागर एवं मरमरा (एजियन) सागर
डारडनेल्स जलसंधि एशिया एवं यूरोप मरमरा सागर एवं भूमध्य सागर
पाक जलसंधि भारत एवं श्रीलंका मन्नार एवं बंगाल की खाड़ी
बाव-एल मंडेव जलसंधि यमन-जिबूती लाल सागर एवं अरब सागर
कारीमाटा जलसंधि इण्डोनेशिया दक्षिणी चीन सागर एवं जावा सागर
वाला बैंक जलसंधि पलावान-बोर्नियो सुलू सागर एवं सेलेबीज सागर
टोकरा जलसंधि जापान पूर्वी चीन सागर एवं प्रशान्त महासागर
नेमुरो जलसंधि जापान प्रशान्त महासागर
सुगारु जलसंधि जापान जापान सागर एवं प्रशांत महासागर
सुशीमा जलसंधि जापान जापान सागर एवं पूर्वी चीन सागर
फोरमोसा जलसंधि ताईवान एवं चीन पूर्वी चीन सागर एवं दक्षिणी चीन सागर
कोरिया जलसंधि दक्षिण कोरिया एवं क्यूशू (जापान) पीला सागर एवं जापान सागर
तत्तर जलसंधि पूर्वी रूस एवं सखालिन ओखोट्स सागर एवं जापान सागर
लापैरोज जलसंधि सखालिन द्वीप एवं हैकेडो द्वीप ओखोट्स सागर एवं जापान सागर
बेरिंग जलसंधि एशिया (रूस) एवं उत्तरी अमेरिका (अलास्का) पूर्वी साईबेरियन सागर एवं बेरिंग सागर
लूजोन जलसंधि ताईवान एवं लूजोन (फिलीपींस) दक्षिणी चीन सागर एवं प्रशांत महासागर
मकस्सार जलसंधि बोर्नियो (केलिमंटन) एवं सेलिबीज द्वीप सेलेबीज सागर एवं जावा सागर
सुण्डा जलसंधि जावा एवं सुमात्रा जावा सागर एवं हिंद महासागर
मलक्का जलसंधि मलय प्रायद्वीप एवं सुमात्रा जावा सागर (दक्षिणी चीन सागर) एवं बंगाल की खाड़ी (हिन्द महासागर)
जाहौर जलसंधि सिंगापुर एवं मलेशिया दक्षिणी चीन सागर एवं मलक्का जल संधि
होरमुज जलसंधि संयुक्त अरब अमीरात एवं ईरान फारस की खाड़ी एवं ओमान की खाड़ी

Tuesday, 12 September 2023

Chief Election Commissioner of India

क्र० नाम पद अवधि
1. सुकुमार सेन 21 मार्च, 1950 - 19 दिसम्बर, 1958
2. के०वी०के० सुंदरम 20 दिसम्बर, 1958 - 30 सितम्बर, 1967
3. एस०पी० सेन वर्मा 1 अक्टूबर, 1967 - 30 सितम्बर, 1972
4. डॉ० नगेन्द्र सिंह 1 अक्टूबर, 1972 - 6 फरवरी, 1973
5. टी० स्वामीनाथन 7 फरवरी, 1973 - 17 जून, 1977
6. एस०एल० शकधर 18 जून, 1977 - 17 जून, 1982
7. आर०के० त्रिवेदी 18 जून, 1982 - 31 दिसम्बर, 1985
8. आर०वी०एस० पेरिशास्त्री 1 जनवरी, 1986 - 25 नवम्बर, 1990
9. श्रीमती वी०एस० रमादेवी 26 नवम्बर, 1990 - 11 दिसम्बर, 1990
10. टी०एन० शेषन 12 दिसम्बर, 1990 - 11 दिसम्बर, 1996
11. एम०एस० गिल 12 दिसम्बर, 1996 - 13 जून, 2001
12. जे०एम० लिंगदोह 14 जून, 2001 - 7 फरवरी, 2004
13. टी०एस० कृष्णामूर्ति 8 फरवरी, 2004 - 15 मई, 2005
14. बी०बी० टंडन 16 मई, 2005 - 29 जून, 2006
15. एन० गोपालस्वामी 30 जून, 2006 - 20 अप्रैल, 2009
16. नवीन चावला 21 अप्रैल, 2009 - 29 जुलाई, 2010
17. एस०वाई० कुरैशी 30 जुलाई, 2010 - 10 जून, 2012
18. वी०एस० संपत 11 जून, 2012 - 15 जनवरी, 2015
19. हरिशंकर ब्रह्मा 16 जनवरी, 2015 - 18 अप्रैल, 2015
20. नसीम जैदी 19 अप्रैल, 2015 - 5 जुलाई, 2017
21. अचल कुमार ज्योति 6 जुलाई, 2017 - 22 जनवरी, 2018
22. ओम प्रकाश रावत 23 जनवरी, 2018 - 1 दिसम्बर, 2018
23. सुनील अरोड़ा 2 दिसम्बर, 2018 - 12 अप्रैल, 2021
24. सुशील चन्द्रा 13 अप्रैल, 2021 - 14 मई, 2022
25. राजीव कुमार 15 मई, 2022 - 18 फरवरी, 2025
26. ज्ञानेश कुमार 19 फरवरी, 2025 - अब तक

Chief Election Commissioner of India
Chief Election Commissioner of India



Last Update:-19/06/2025

Friday, 18 August 2023

Chief Justice of India

क्र० नाम पद अवधि
1. हरिलाल जे० कानिया 26 जनवरी, 1947 - 6 नवम्बर, 1951
2. एम० पंतजलि शास्त्री 7 नवम्बर, 1951 - 3 जनवरी, 1954
3. मेहर चंद महाजन 4 जनवरी, 1954 - 22 दिसम्बर, 1954
4. बी० के० मुखर्जी 23 दिसम्बर, 1954 - 31 जनवरी, 1956
5. एस०आर० दास 1 फरवरी, 1956 - 30 सितम्बर, 1959
6. भुवनेश्वर प्रसाद सिन्हा 1 अक्टूबर, 1959 - 31 जनवरी, 1964
7. पी०बी० गजेंद्रगडकर 1 फरवरी, 1964 - 15 मार्च, 1966
8. ए०के० सरकार 16 मार्च, 1966 - 29 जून, 1966
9. के० सुब्बाराव 30 जून, 1966 - 11 अप्रैल, 1967
10. के० एन० वांचू 12 अप्रैल, 1967 - 24 फरवरी, 1968
11. एम० हिदायतुल्लाह 25 फरवरी, 1968 - 16 दिसम्बर, 1970
12. जे०सी० शाह 17 दिसम्बर, 1970 - 21 जनवरी, 1971
13. एस०एम० सीकरी 22 जनवरी, 1971 - 25 अप्रैल, 1973
14. ए०एन० रे 26 अप्रैल, 1973 - 28 जनवरी, 1977
15. एम०एच० बेग 29 जनवरी, 1977 - 21 फरवरी, 1978
16. वाई०वी० चंद्रचूड़ 22 फरवरी, 1978 - 11 जुलाई, 1985
17. प्रफुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती 12 जुलाई, 1985 - 20 दिसम्बर, 1986
18. रघुनन्दन स्वरूप पाठक 21 दिसम्बर, 1986 - 18 जून, 1989
19. ई०एस० वेंकटरमैया 19 जून, 1989 - 2 दिसम्बर, 1989
20. एस० मुखर्जी 18 दिसम्बर, 1989 - 25 सितम्बर, 1990
21. रंगनाथ मिश्र 25 सितम्बर, 1990 - 24 नवम्बर, 1991
22. के०एन० सिंह 25 नवम्बर, 1991 - 12 दिसम्बर, 1991
23. एम०एच० कानिया 13 दिसम्बर, 1991 - 17 नवम्बर, 1992
24. एल०एम० शर्मा 18 नवम्बर, 1992 - 11 फरवरी, 1993
25. एम०एन० वेंकटचलैया 12 फरवरी, 1993 - 24 अक्टूबर, 1994
26. ए०एम० अहमदी 25 अक्टूबर, 1994 - 24 मार्च, 1997
27. जे०एस० वर्मा 25 मार्च, 1997 - 17 जनवरी, 1998
28. एम०एम० पंछी 18 जनवरी, 1998 - 9 अक्टूबर, 1998
29. ए०एस० आनन्द 10 अक्टूबर, 1998 - 31 अक्टूबर, 2001
30. एस०पी० भरुचा 1 नवम्बर, 2001 - 5 मई, 2002
31. बी०एन० कृपाल 6 मई, 2002 - 7 नवम्बर, 2002
32. जी०बी० पटनायक 8 नवम्बर, 2002 - 18 दिसम्बर, 2002
33. वी०एन० खरे 19 दिसम्बर, 2002 - 1 मई, 2004
34. एस०राजेन्द्र बाबू 2 मई, 2004 - 31 मई, 2004
35. आर०सी० लाहोटी 1 जून, 2004 - 31 अक्टूबर, 2005
36. वाई० के० सब्बरवाल 1 नवम्बर, 2005 - 13 जनवरी, 2007
37. के०जी० बालाकृष्णनन 14 जनवरी, 2007 - 11 मई, 2010
38. एस०एच० कपाड़िया 12 मई, 2010 - 28 सितम्बर, 2012
39. अल्तमश कबीर 29 सितम्बर, 2012 - 18 जुलाई, 2013
40. पी० सदाशिवम 19 जुलाई, 2013 - 26 अप्रैल, 2014
41. आर०एम० लोढ़ा 27 अप्रैल, 2014 - 27 सितम्बर, 2014
42. एच०एल० दत्तू 28 सितम्बर, 2014 - 2 दिसम्बर, 2015
43. टी०एस० ठाकुर 3 दिसम्बर, 2015 - 3 जनवरी, 2017
44. जे०एस० खट्टर 4 जनवरी, 2017 - 27 अगस्त, 2017
45. दीपक मिश्रा 28 अगस्त, 2017 - 2 अक्टूबर, 2018
46. रंजन गोगोई 3 अक्टूबर, 2018 - 17 नवम्बर, 2019
47. शरद अरविन्द बोबड़े 18 नवम्बर, 2019 - 23 अप्रैल, 2021
48. एन०वी० रमण 24 अप्रैल, 2021 - 26 अगस्त, 2022
49. उदय उमेश ललित 27 अगस्त, 2022 - 8 नवम्बर, 2022
50. धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड़ 9 नवम्बर, 2022 - 10 नवम्बर, 2024
51. संजीव खन्ना 11 नवम्बर, 2024 - 13 मई 2025
52. भूषण रामकृष्ण गवई 14 मई 2025 - अब तक

Chief Justice of India
Chief Justice of India



Last Update:-19/06/2025

Thursday, 20 July 2023

National symbols of India

राष्ट्रीय चिह्न

  • राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक के सिंह- स्तम्भ के शीर्ष की अनुकृति है।
  • सारनाथ स्थित अशोक के सिंह-स्तम्भ में चार शेर खुले मुख करके एक-दूसरे की ओर पीठ करके दृष्टिगोचर होते हैं। राष्ट्रीय चिह्न में सिर्फ तीन ही शेर दिखाई देते हैं, जिनके नीचे की पट्टी के मध्य में उभरी हुई नक्काशी में चक्र है, जिसके दाईं ओर एक सांड़ और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएँ तथा बाएँ छोरों पर अन्य चक्रों के किनारे दृष्टिगत होते हैं।
  • राष्ट्रीय चिह्न के दो भाग हैं - शीर्ष और आधार।
  • शीर्ष पर शेर को दिखलाया गया है, जो साहस व शक्ति का प्रतीक है।
  • आधार भाग में एक धर्म-चक्र है। चक्र के दाईं ओर एक बैल है, जो कठिन परिश्रम व स्फूर्ति का प्रतीक है तथा बाईं ओर एक घोड़ा है, जो ताकत व गति का प्रतीक है।
  • आधार के बीच में देवनागरी लिपि में 'सत्यमेव जयते' लिखा गया है, जो मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है।
  • इस राष्ट्रीय चिह्न को 26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया था।
  • इस राष्ट्रीय चिह्न का प्रयोग सरकारी कागजों, नोटों, सिक्कों तथा मोहरों पर होता है।
राष्ट्रीय ध्वज
  • संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा) का प्रारूप 22 जुलाई, 1947 को अपनाया था।
  • ध्वज में समान अनुपात वाली तीन आड़ी पट्टियाँ हैं, जो केसरिया, सफेद व हरे रंग की हैं।
  • ध्वज के ऊपर गहरा केसरिया रंग होता है, जो जागृति, शौर्य तथा त्याग का प्रतीक है, बीच में सफेद रंग होता है, जो सत्य एवं पवित्रता का प्रतीक है तथा सबसे नीचे गहरा हरा रंग होता है, जो जीवन एवं समृद्धि का प्रतीक है।
  • ध्वज के बीच में सफेद रंग वाली पट्टी के बीच में गहरे नीले रंग का 24 तीलियों वाला अशोक चक्र है, जो धर्म तथा ईमानदारी के मार्ग पर चलकर देश को उन्नति की ओर ले जाने की प्रेरणा देता है।
  • ध्वज की लम्बाई तथा चौड़ाई का अनुपात 3:2 है।
  • ध्वज का प्रयोग व प्रदर्शन एक संहिता द्वारा नियमित होता है।

National symbols of India
National symbols of India


Update Soon...

Saturday, 15 April 2023

Social Structure and its Features

जिस प्रकार शरीर की संरचना हाथ पाँव, नाक, कान, आँख एवं मुँह आदि कई अंगों अथवा इकाइयों से मिलकन बनी होती है। ठीक इसी प्रकार से समाज की संरचना भी होती है। प्रत्येक भौतिक वस्तु की एक संरचना होती है जो कई इकाइयों या तत्वों से मिलकर बनी होती है। ये इकाइयों परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रत्येक संरचना का निर्माण कई अंगों अथवा इकाइयों से मिलकर होता है। इन इकाइयों में परस्पर स्थायी एवं व्यवस्थित सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये अंग अथवा इकाइयाँ स्थिर रहती हैं। संरचना का सम्बन्ध बाहर की आकृति व स्वरूप से होता है। उसका संबंध आन्तरिक रचना से नहीं होता है। इस तरह से स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार शरीर या भौतिक वस्तु की संरचना होती है, उसी प्रकार से समाज की भी एक संरचना होती है जिसे सामाजिक संरचना कहा जाता है। समाज की संरचना भी शरीर की तरह ही कई इकाइयों, जैसे परिवार, संस्थाओं, संघों, प्रतिमानों, मूल्यों एवं पदों आदि से बनी होती है।


सामाजिक संरचना का अर्थ व परिभाषायें विभिन्न समाजशास्त्रियों ने जो सामाजिक संरचना की परिभाषायें दी हैं, उनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-


1. मैकाइवर एवं पेज के अनुसार “समूहो के विभिन्न प्रकारों से मिलकर सामाजिक संरचना के जटिल प्रतिमानों का निर्माण होता है।"


2. मजूमदार एवं मदान के अनुसार "पुनरावृत्तीय सामाजिक संबंधों के तुलनात्मक स्थायी पक्षों से सामाजिक संरचना बनती है।"


3. टाल कॉट पारसन्स के अनुसार "सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, एजेन्सियों और सामाजिक प्रतिमानों तथ साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किये गये पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।'


4. कार्ल मानहीम के अनुसार "सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिसमें अवलोकन और चिन्तन की विभिन्न प्रणालियों का जन्म होता है।'


5. जिन्स वर्ग के अनुसार "सामाजिक संरचना का अध्ययन सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों अर्थात् समूहों, समितियों तथा संस्थाओं के प्रकार एवं इन सबके संकुल जिससे कि समाज का निर्माण होता है, से संबंधित हैं। "


6. एच. एम. जोनसन के अनुसार "किसी वस्तु की संरचना उसके अंगों के अपेक्षाकृत स्थायी अन्तर्सम्बन्धों से निर्मित होती है, स्वयं 'अंग' शब्द से ही कुछ स्थायित्व के अंग का ज्ञापन होता है। सामाजिक प्रणाली क्योंकि लोगों के अन्तर्सम्बन्धित कृत्यों से निर्मित होती हैं, इसकी संरचना भी इन कृत्यों में पायी जाने वाली नियमितता या पुनरावृत्ति के अंशों में ढूँढी जानी चाहिए।"


7. ब्राउन के अनुसार "सामाजिक संरचना के अंग या भाग मनुष्य ही है, और स्वयं संरचना संस्था द्वारा परिभाषित और नियमित संबंधों में लगे हुए व्यक्तियों की एक क्रमबद्धता है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक संरचना समाज की विभिन्न इकाइयों, समूहों, संस्थाओं, समितियों एवं सामाजिक सम्बन्धों से निर्मित एक प्रतिमार्वनत एवं क्रमबद्ध ढाँचा है। इस प्रकार सामाजिक संरचना अपेक्षतया एक स्थिर अवधारणा है। जिसमें परिवर्तन अपवादस्वरूप ही देखने को मिलते हैं। 


सामाजिक संरचना की विशेषताएँ (Characteristics of Social Structure)


सामाजिक संरचना की अवधारणा को इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है- 


1. सामाजिक संरचना एक क्रमबद्धता है : इसका तात्पर्य यह है कि जिन इकाइयों 8 के द्वारा सामाजिक संरचना का निर्माण होता है, वे एक क्रमबद्धता में व्यवस्थित होती है। यही क्रमबद्धता सामाजिक संरचना के एक विशेष प्रतिमान को स्पष्ट करती है।


2. सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत स्थायी होती है : इसे स्पष्ट करते हुए जॉन्सन ने लिखा है कि सामाजिक संरचना का निर्माण जिन समूहों तथा संघों से होता है, उनकी प्रकृति कहीं अधिक स्थायी होती है। उदाहरण के लिए, परिवार में यदि कर्ता या किसी अन्य सदस्य की मृत्यु हो जाय तो भी संयुक्त परिवार की संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता।


3. सामाजिक संरचना की अनेक उप-संरचनाएँ होती हैं: सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयों की संरचना को उनकी उप-संरचना कहा जाता है। उदाहरण के लिए, राज्य, सरकार, राजनीतिक दल तथा दबाव समूह एक राजनीतिक संरचना की उप-संरचनाएँ हैं। इसी तरह पंचायत, युवागृह तथा नातेदारी व्यवस्था, जनजातीय सामाजिक संरचना की उप-संरचनाएँ हैं। सांस्कृतिक संरचना का निर्माण करने में बहुत-सी परम्पराओं, प्रथाओं तथा मूल्यों का समावेश होता है तथा इन सभी की अपनी उप-संरचनाएँ होती हैं। यह सभी उप-संरचनाएँ मिलकर एक विशेष सामाजिक संरचना का निर्माण करती है।


4. सामाजिक संरचना के विभिन्न अंग परस्पर संबंधित होते हैं: यदि उपर्युक्त उदाहरणों के आधार पर देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि नातेदारी की संरचना शैक्षणिक, आर्थिक, धार्मिक और मनोरंजनात्मक उप-संरचनाओं से संबंधित होती है। इसी तरह व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार, विद्यालय, धर्म, सरकार, राजनीतिक दलों तथा आर्थिक उप-संरचनाओं का समान योगदान होता है। इस प्रकार सभी उप-संरचनाएँ एक-दूसरे से संबंधित रहकर किसी सामाजिक संरचना को उपयोगी और प्रभावशाली बनाती हैं।


5. सामाजिक संरचना में मूल्यों का समावेश होता है : इसका तात्पर्य यह है कि व्यवहार और सम्मान के अनेक तरीके, जनरीतियाँ, प्रथाएँ, परम्पराएँ तथा प्रतीक इसका निर्धारण करते हैं कि किसी सामाजिक संरचना की प्रकृति किस प्रकार की होगी। विभिन्न समाजों के सामाजिक मूल्य एक-दूसरे से भिन्न होने के कारण ही उनकी सामाजिक संरचना में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देता है।


6. सामाजिक संरचना के प्रत्येक अंग के निर्धारित प्रकार्य होते हैं: इन प्रकार्यों का निर्धारण सामाजिक मूल्यों तथा सामाजिक प्रतिमानों के द्वारा होता है। इन मूल्यों और प्रतिमानों में साधारणतया कोई परिवर्तन न होने के कारण भी सामाजिक संरचना की प्रकृति तुलनात्मक रूप से स्थायी हो जाती है।


7. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है : पारसन्स ने लिखा है कि सामाजिक संरचना कोई वस्तु अथवा व्यक्तियों का संगठन नहीं है, बल्कि यह केवल अनेक इकाइयों की कार्यविधियों और उनके पारस्परिक संबंधों का एक प्रतिमान है। मैकाइवर का कथन है कि जिस प्रकार हम समाज को देख नहीं सकते, उसी तरह सामाजिक संरचना भी एक अमूर्त अवधारणा है। यह सत्य है कि परिवार, गाँव, जाति, वर्ग, राज्य तथा विभिन्न समितियाँ और संस्थाएँ सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयाँ हैं किन्तु सामाजिक संरचना का तात्पर्य इन इकाइयों के बाहरी रूप से न होकर उस क्रमबद्धता से है जो समाज के एक विशेष प्रतिमान को स्पष्ट करती है। इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना की प्रकृति अमूर्त होती है।


8. सामाजिक संरचना का तात्पर्य सदैव संगठन से नहीं होता : यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था संगठन का बोध कराती है परन्तु सामाजिक संरचना में कुछ व्यक्ति अथवा इकाइयाँ भी हो सकती हैं जिनके व्यवहार सामाजिक नियमों के प्रतिकूल हो। इसे मर्टन ने सामाजिक नियमहीनता' कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना का संबंध केवल सामाजिक संगठन की दशा से ही नहीं होता, बल्कि इसमें उन सभी दशाओं का समावेश होता है जो संगठन और विघटन के तत्वों का बोध कराती हैं।


9. सामाजिक संरचना स्थानीय आवश्यकताओं से प्रभावित होती है : वास्तव में, एक विशेष सामाजिक संरचना का निर्माण उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और भौगोलिक आवश्यकताओं के आधार पर होता है। जब कभी इन दशाओं अथवा आवश्यकताओं में परिवर्तन होता है, तब सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली उप-संरचनाओं में भी कुछ परिवर्तन होने लगता है, यद्यपि सम्पूर्ण संरचना में जल्दी ही कोई परिवर्तन नहीं होता।


इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना का एक वाह्य रूप है जिसके निर्माण में बहुत-से समूहों, संस्थाओं, समितियों तथा सामाजिक मूल्यों का योगदान होता है। इन सभी इकाइयों की प्रकृति का निर्धारण एक विशेष संस्कृति पर आधारित होने के कारण ही सामाजिक संरचना को अक्सर सांस्कृतिक संरचना भी कह दिया जाता है।


Social Structure and its Features
Social Structure and its Features


Friday, 15 July 2022

Chinese Revolution of 1911

 1911 की चीनी क्रांति 


चीन में मंचूवंश की स्थापना सतरहवीं शताब्दी में हुई थी और 1911 ई० तक चीन पर इस राजवंश का शासन चलता रहा। इस राजवंश के शासनकाल के पूर्व चीन एक समृद्ध देश था। परंतु मंचू-राजवंश के उत्तरकालीन शासन में राजनीतिक दृष्टि से चीन की अवस्था बहुत खराब हो गई। फलतः उन्नीसवीं शताब्दी में चीन विदेशी साम्राज्यवाद का बुरी तरह शिकार हो गया। कुशासन निर्धनता और विदेशी प्रभाव से चीन के लोग एकदम तंग हो गए। इसके विरूद्ध उनमें राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ और देश के कई क्रांतिकारी दल संगठित होने लगे। 1911 ई० में डॉ० सनयात सेन के नेतृत्व में मंचू राजवंश के विरूद्ध एक भयंकर विद्रोह हुआ, जिसे 1911 ई० की चीनी क्रांति कहते थे। इस विद्रोह ने चीन से मंचू-राजवंश को समाप्त कर दिया तथा वहाँ गणतंत्र की स्थापना की।


1911 ई० की क्रांति के कारण- 1911 ई० के चीन की क्रांति के निम्नलिखित कारण थे- 1. मंचू-राजवंश की दुर्बलता- उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में चीन की क्रांति बहुत खराब हो गई थी। खेती और उद्योग-धंधे नष्ट हो गये थे। गरीबी तथा बेकारी बढ़ रही थीं। शासन में भ्रष्टाचार फैल रहा था। चीन पर यूरोप के साम्राज्यवादी राज्यों का प्रभाव स्थापित हो रहा था। विदेशियों को चीन में हर तरह की नाजायज सुविधाएँ मिल रही थीं। इससे चीनी जनता का शोषण हो रहा था। इन सबके लिए चीन की जनता मंचू-राजवंश को उत्तरदायी मानती थी।


2. आर्थिक दुर्दशा - उस समय खेती और उद्योग-धंधों के नष्ट होने के कारण चीन की आर्थिक अवस्था दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही थी। एक ओर जनसंख्या में अति तीव्र गति से वृद्धि हो रही थी और दूसरी ओर सरकार की ओर से कृषि और उद्योग-धंधों के विकास एवं उन्नति के लिए कोई कार्य नहीं हो रहा था। इसलिए चीनी जनता में प्रशासन के प्रति बड़ा क्षोभ था।


3. पाश्चात्य जगत से संपर्क (बौद्धिक जागरण ) - बीसवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों के साथ चीन का संपर्क स्थापित हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से बहुत-से चीनी विद्यार्थी यूरोप और अमेरिका गए। वहाँ उन्हें क्रांतिकारी साहित्यों के अध्ययन का अवसर मिला। जब ये युवक स्वदेश लौटे तो अपने देश की तुलना यूरोपीय देशों के साथ करने लगे और यूरोपीय देशों के समान चीन को उन्नत बनाने का स्वप्न देखने लगे। उन्हें मंचू-राजवंश के निरंकुश शासन से बड़ी घृणा हो गई। वे उसका अंत करने के लिए व्यग्र हो उठे।


4. जनसंख्या में वृद्धि तथा प्राकृतिक प्रकोप - चीन की आबादी बड़ी तेजी से बढ़ रही श्री पर, वहाँ खाद्यान्न की कमी थी। शासन का इस ओर ध्यान नहीं था। फिर दुर्भिक्ष, महामारी, याह आदि प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लोग वाह थे। 1910-11 में चीन की कई नदियों में भयंकर बाद आई इससे खेती नष्ट हुई हो, लाखों लोग बेघर हो गए तथा भूखों मरने लगे। लोगों को सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली। 


5. डॉ० सनयात सेन का योगदान - डॉ० सनयात सेन को 1911 ई० की 'क्रांति का जनक' कहा जाता है। डॉ० सनयात सेन चीन की दुर्दशा का एकमात्र कारण मंचू-राजवंश को ही मानते थे। अतः, उन्होंने चीन की व्यवस्था में सुधार लाने के लिए तुंग-सँग हुई नामक राजनीतिक दल का संगठन किया। इसी दल ने क्रांति का सूत्रपात कर मंचू-राजवंश का अंत किया।


6. स्वदेशी रेलमार्ग योजना की अस्वीकृति ( तात्कालिक कारण) - चीन में रेलमार्गों के निर्माण कार्य बड़ी तेजी से चल रहा था। 1921 ई० में चीन के धनीमानी लोगों ने रेलमार्ग-संबंधी एक स्वदेशी योजना मंचू सरकार के समक्ष प्रस्तुत की। पर, सरकार ने उनकी योजना अस्वीकृत कर दी और बदले में एक विदेशी योजना स्वीकार कर ली। इससे सारे देश में असंतोष की ज्वाला भड़क उठी।


उपर्युक्त सभी कारणों को लेकर 1911 ई० में चीन में एक महान क्रांति हो गई। सर्वप्रथम हँकाऊ के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह की आग सारे देश में फैल गई। इस क्रांति में डॉ० सनयात सेन द्वारा स्थापित 'तुंग-मंग हुई' दल ने सक्रिय रूप से भाग लिया। जब स्थिति बहुत गंभीर हो गई तो मंचू-सम्राट ने सिंहासन त्याग दिया और क्रांतिकरयों ने राजतंत्र का अंत कर चीन में गणतंत्र की स्थापना की। डॉ० सनयात सेन को इस गणतंत्र का प्रधान बनाया गया।


क्रांति की असफलता - यद्यपि 1911 ई० की क्रांति में दो हजार वर्ष पुराने राजवंश का अंत हो गया और गणतंत्र की स्थापना हुई तथापि क्रांति का उद्देश्य सफल नहीं हो सका। चीन में सही अर्थों में प्रजातंत्र की स्थापना नहीं हो सकी।


क्रांति की असफलता के निम्नलिखित कारण थे - (i) राष्ट्रीयता की भावना का अभाव - मंचू-शासनकाल में चीन कई स्वतंत्र प्रदेशों में बैठा हुआ था। इनकी शासन-व्यवस्था अलग-अलग थी। लोग चीन को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देखते थे। उनमें राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था । 

(ii) चीन की सामंतवादी पद्धति - चीन में अब भी सामंतवादी का बोलबाला था। चीन के सामंत नहीं चाहते थे कि किसी तरह के प्रजातंत्र का विकास हो। वे नहीं चाहते थे कि चीन की राजसत्ता डॉ० सनयात सेन जैसे उग्रवादी विचारवाले नेता के हाथों में रहे। अतः, 1911 ई० की क्रांति असफल रही।


Chinese Revolution of 1911
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Friday, 20 May 2022

The rise of militarism in Japan

जापान में सैन्यवाद का उदय 


जापानी सैन्यवाद (1928-45 ) - जापान में सैन्यवाद का उग्रवादी चरण 1928 ई० के बाद प्रारंभ हुआ। इससे पूर्व सामंतों की समुराई परंपरा में जापानी सामंत सशस्त्र सेवक पालते थे। यद्यपि जापान में मेईजी-पुनर्स्थापन के बाद उदारवादी और प्रगतिशील दल-पद्धति का विकास हुआ था किंतु राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ नहीं पाया था। जापान की नई शासन-व्यवस्था में एक कुलीन सभा की स्थापना हुई थी। इसमें सेना के उच्चाधिकारियों को भी स्थान दिए गए थे। एक निम्न सदन, डाइट (Diet) की स्थापना हुई थी, परंतु इस लोकप्रिय सदन को पूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं प्राप्त थी। वास्तविक शक्ति राजा के कार्यकारिणी परिषद (Executive Council) में रखी गई थी। इस परिषद के सदस्य ऊपरी सदन के लिए जाते थे। इसमें अधिकतर जेनरोज (Genros) नामक कुलीन ही होते थे। कार्यकारिणी परिषद के सदस्य सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे न कि डाइट (Diet) के प्रति। इन्हें डाइट को भंग करने का अधिकार नहीं था। डाइट काफी प्रभावशाली था। सेना पर खर्च बढ़ाने की अनुमति केवल वही संस्था दे सकती थी। 1925 ई० तक डाइट का सामाजिक आधार अत्यधिक बढ़ गया था। इसी वर्ष से जापान के सभी बालिग पुरूषों को मतदान का अधिकार दे दिया गया था। जनता द्वारा चुने गए नेता डाइट के सदस्य होते थे। 


लोकप्रिय नेताओं ने सरकार पर अपना नियंत्रण बढ़ाने का जब प्रयास किया तब सम्राट ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार सेनामंत्री सदैव वरिष्ठ सेनापति ही चुना जाएगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप जापानी मंत्रिमंडल में सेना का प्रभाव बढ़ा लोकप्रिय दल की सरकार देश में सैनिक प्रभाव को कम करना चाहती थी किंतु संविधान के अनुसार ऐसा संभव नहीं था। संविधान के अनुसार उच्च सैनिक अधिकारियों एवं ऊपरी सदन के सदस्यों का आदर करना जरूरी था।


विकसित औद्योगिकीकरण के कारण वामपंथी आंदोलन बढ़ते जा रहे थे। रूढ़िवादी और सैन्यवादी चाहते थे कि वापमंधी आंदोलन को जापानी मंत्रिमंत्रल द्वारा 'कोई प्रोत्साहन नहीं मिले। संविधान का स्वरूप ऐसा था जिसके अनुसार उदारवादी जनतांत्रिक परंपरा का विकास संभव नहीं था। जापान में विकसित अर्थव्यवस्था के कारण उदारवादी विचारधारा का विकास हुआ। विकसित अर्थव्यवस्था ने ही जापान में पूँजीवादी वातावरण बनाया। पूँजीवाद के कारण जापान साम्राज्यवादी एवं सैन्यवादी योजनाएँ बनाने लगा। जापानी व्यापार और जनसंख्या में वृद्धि होती गई। व्यापार में वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया कि जापान दूर तक अपने व्यापार क्षेत्रों को सुरक्षित रखे और बढ़ती हुई जनसंख्या को उपनिवेशों में बसाए और सैन्य बल द्वारा ही यह संभव था।


पश्चिमी शक्तियों के साथ असमान सधियों के कारण भी जापान में सैन्यवाद का विकास हुआ। पश्चिमी शक्तियों द्वारा आरोपित संबंधों को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक था कि जापान एक शक्तिशाली औद्योगिक और सैनिक राष्ट्र बने। कोरिया, मंचूरिया और चीन में जापान की रूचि थी। आर्थिक और सामरिक दृष्टि से ये क्षेत्र जापान के लिए अति महत्वपूर्ण थे। इसीलिए 1894 से 1905 ई० तक जापान ने दो युद्ध किए एक चीन से और दूसरा रूस के साथ इन युद्धों में मिली सफलता में जापानी सैन्यवाद को प्रोत्साहित किया। सैन्यवाद के बल पर ही जापान 1909 ई० तक दक्षिण मंचूरिया, लिआयोतुंग प्रायद्वीप और कोरिया पर आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों से मिलकर जापान की गतिविधि सुदूरपूर्व में बढ़ी रही। विशेषकर, जापान जर्मन क्षेत्रों को हथियाने में लगा रहा।


प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जापान का सैन्य बल कुछ धीमा पड़ गया; क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों ने उसकी सैनिक शक्तियों पर वाशिंगटन-सम्मेलन में कुछ रोक लगाई और जापान राष्ट्रसंघ का सदस्य भी बना।


1920-30 में जापानी सैन्यवादी और राष्ट्रवाद का पूर्ण उत्कर्ष हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध तक बड़े आक्रामक ढंग से चलता रहा। जापान में उग्र राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के पूर्ण उत्थान का एक स्पष्ट कारण आर्थिक था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय की आर्थिक समृद्धि 1920 ई० के आसपास समाप्तप्राय होने लगी थी। जापानी कृषि में मंदी छा गई थी। यह मंदी और व्यापक रूप से छाई जब 1929-30 की विश्वमंदी का असर जापान पर भी पड़ा। जापानी निर्यात पर इसका खराब असर पड़ा। उसके रेशम-व्यापार बिल्कुल नष्ट हो गए। इस संकट की घड़ी में आर्थिक समस्या का समाधान सैन्यवादी ढंग से हो सकता था। 


मेईजी पुनर्स्थापन के समय (1867 ई०) से जापान की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई। तीन करोड़ की जनसंख्या 1930 ई० में साढ़े छह करोड़ हो गई। इस स्थिति में जापान की खाद्यान्नों का आयात करना पड़ रहा था। अमेरीका की संरक्षणवादी नीति से जापान के निर्यात ठप्प पड़ते जा रहे थे। अंततः जापान विस्तृत आर्थिक क्षेत्रों को बनाना चाहता था। इस विचार के फलस्वरूप जापान में 'संयुक्त समृद्धि क्षेत्र' के नारे लगाए गए। इस विचार को बल इसलिए मिला कि जापानियों के लिए अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया एवं आस्ट्रेलिया में बसने पर रोक लगा दी गई थी। इस प्रकार, इस बात ने जोर पकड़ लिया कि शक्ति-प्रयोग से क्षेत्र विस्तृत करने के अलावा जापान के पास कोई चारा नहीं रह गया है।


इस आर्थिक संकट के बावजूद जापान का विशाल व्यावसायिक संघ जैवात्सु - Zaibatsu) भयंकर मुनाफा कमा रहा था। इस संघ की साँठगाँठ से तत्कालीन जापानी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार में लीन रहे। भ्रष्टाचार के विभिन्न कांडों के प्रकाश में आने के कारण राजनीतिकः दलों तथा पार्टी सरकार को नहीं पूरी की जा सकने वाली क्षति हुई। जनता का राजनीतिक दलों तथा पार्टी सरकार पर से विश्वास उठ गया। वस्तुतः राजनैतिक दलों पर सामान्य जनता- ग्रामीण तथा शहरी दोनों के हितों की अवहेलना के लिए प्रहार किया जाने लगा।


तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक वातावरण में यह अवश्यम्भावी हो गया था कि जापानी सैन्यवाद को जापानी जनता से भी प्रोत्साहन मिले। 1930 ई० में जापानी प्रधानमंत्री ने लंदन नेवेल कॉफ्रेंस (Londan Naval Conference) के निर्णय के अनुसार जापानी नौसेना में कटौती करना स्वीकार कर ली थी। इसके बाद केंटो सरकार ने सेना को कम करने की बात स्वीकार कर ली थी। इसी समय सैनिक नेताओं ने चीन पर आक्रमण करने की मांग की। सेना के जवान अधिकतर सरल ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते थे। उनके हृदय में इसीलिए भ्रष्ट पार्टी राजनीतिज्ञों के लिए कोई इज्जत नहीं थी।


बढ़ते हुए आर्थिक बोझ और बदलते हुए राजनीतिक परिवेश में कुछ उग्र राष्ट्रीय दल भी पैदा हो गए थे जो पार्टी सरकार का प्रतिरोध करते थे। इन अतिवादी दलों के अनुसार उदारवादी पार्टी सरकार जापानी परंपरा के विरूद्ध थी। वस्तुतः ऐसी दलें भी कड़े नीतिज्ञों का ही समर्थन करती थी। 1928-32 में जापानी सेना के जवान कुछ सेनापतियों से मिलकर सरकार विरोधी हिंसा करने लगे। मंचूरिया में स्थित जापानी क्वातुंग सेना भी अपना निर्णय स्वयं लेने लगी और टोकियो सरकार का आदेश मानने से इनकार कर दिया। सितंबर 1931 की मंचूरिया घटना के उपरांत मुकदेन क्षेत्र पर सेना छा गई और बाद में समस्त मंचूरिया पर टोकियो की असैनिक सरकार अपने सैनिकों को मंचूरिया में नियंत्रण करने में असफल रही। इसी समय दल मंत्रिमंडलों की समाप्ति हो गई और उनकी जगह राष्ट्रीय एकता का एक मंत्रिमंडल कायम किया गया। इस मंत्रिमंडल में सैनिक नेताओं का ही प्रभाव था और इसे कंट्रोल फैक्शन (Control Faction) के नाम से जाना गया। कंट्रोल फैक्शन अपनी राजनीतिक गतिविधियों में थोड़ा सजग था। सैनिकों ने सेना के उपद्रवी नौजवानों को नियंत्रित करना चाहा। कंट्रोल फैक्शन की विदेश नीति पहले जैसी ही थी। इस नई सरकार ने मंचूरिया में सेना की भूमिका को स्वीकृति दे दी। मंचूरिया में स्थित जापानी सेना ने एक कठपुतली सरकार भी कायम कर ली थी जिसे 'मंचूकुओं' के नाम से जाना जाता था। बढ़ती हुई सैन्यवादी प्रवृत्ति के इसी अवसर पर राजनीतिक दलों ने भी भयभीत होकर अपने संगठनों को स्वयं भंग कर दिया और उसके स्थान पर सभी दलों ने सेना के नेतृत्व में एक 'साम्राज्य- सहायक संघ' बनाने का निर्णय लिया।


इस प्रकार जापान की सरकार सैन्यवादियों के हाथ में चली गई। सैन्यवादियों की इच्छा के विरूद्ध कोई जा नहीं सकता था क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने से जापान को क्षेत्र विस्तार का मौका मिला था। इस मौके का लाभ जापानी समाज के हर तत्व जैसे जैबाब्सु, कृषक, श्रमिक आदि उठाना चाहते थे। इसीलिए किसी तत्व ने सैन्यवादी नीति का प्रतिरोध नहीं किया।


एक बार जापान में जब सैन्यवाद स्थापित हो गया तब इस शासन के अधीन कई हिंसात्मक घटनाएँ घटीं। 1932 ई० से नौसैनिक अधिकारियों का प्रमुख राजनीतिज्ञों पर प्रहार शुरू हुआ। 1936 ई० में जापानी सेना की एक टुकड़ी ने टोकियो में विद्रोह किया। जब जापानी सेना मंचूरिया में मंचुकूओं सरकार बनाई थी जब राष्ट्रसंघ ने मंचूरिया पर जापानी आधिपत्य का प्रतिरोध किया था। इसके फलस्वरूप मार्च 1933 में जापान राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्यागकर मंचूरिया के खनिज पदार्थों का शोषण करने लगा। इसके पूर्व 1932 ई० में ही चीन में जापानी माल का बहिष्कार किया गया विरूद्ध 70 हजार जापानी सेना शंघाई में उतार दी गई थी, परंतु राष्ट्रसंघ के कड़े विरोध से जापानी सेना वहाँ रह नहीं सकी थी। इस असफलता का मुआवजा जापान ने जेहोल (Jehol) में घुसपैठी करके लिया। जुलाई, 1937 में जापानी सेना ने बीजिंग के निकट चीनी सेना पर आक्रमण किया जिससे 'चीनी घटना' प्रारंभ हुई। जल्दी ही जापानी सेना ने नानकिंग, हाँवकाऊ और कैंटन पर कब्जा कर लिया। अमेरिका का जापान के प्रति ठीक रवैया नहीं था। दिसंबर, 1941 के पर्ल बंदरगाह पर बमबारी के फलस्वरूप जापान के विरोध में अमेरिका सक्रिय हो गया। उसने जापानी साम्राज्यवाद पर अंकुश लगा देने का निश्चय किया। 


पर्ल बंदरगाह की सफलता से प्रोत्साहित होकर जापानी सेना तीव्र गति से दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकतर भाग पर छा गई। जनवरी, 1942 को फिलीपाइंस पर जापान ने कब्जा कर लिया। मई, 1942 में कैरेजिडोर को उसने जीत लिया। इसी वर्ष सिंगापुर पर जापान का अधिकार हो गया। 1942 ई० में ही इंडोनेशिया और रंगून को उसने जीत लिया।


अन्ततोगत्वा सुदूरपूर्वं एवं प्रशांत महासागर में अमेरिकी शक्ति के प्रयोग से यह स्पष्ट हो चला था कि जापान की हार निश्चित थी। जापान के सैन्यवादी इस स्थिति को स्वीकारने से इनकार करते रहे, किन्तु अमेरिका ने 6 और 9 अगस्त को हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिया। परमाणु बमों के विस्फोट से जापानी सैन्यवाद की महत्वाकांक्षाओं का अंत हो गया।


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Friday, 4 March 2022

Achievements of Chandragupta Maurya

ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मगध साम्राज्य की बागडोर नंदवंश के हाथों में चली गयी । नन्दवंश के अन्तिम शासक धननन्द के समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ और सिकन्दर की विजय के परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के अनेक गणराज्यों का अन्त हो गया और वहाँ यूनानी शासन व्यवस्था लागू हो गयी। परन्तु 323 ई. पूर्व में सिकन्दर की अचानक मृत्यु हो जाने से यह समस्त व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और यूनानी शासक के विरुद्ध चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी तथा भारत ने यूनानी परतंत्रता का जुआ उतार फेंका। इस विद्रोह या क्रांति का नेतृत्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया और मगध में मौर्य वंश की स्थापना की।


चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति एवं वंश के बारे में विद्वानों में मतभेद है, जो कि अभी तक दूर नहीं हो पाये हैं। चन्द्रगुप्त मौग्र की जाति एवं वंश के बारे में प्रमुख मत हैं


पहले मत के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य नन्द वंश के राजा महापद्मनन्द की 'मुरा' नामक दासी का पुत्र था। इसलिए चन्द्रगुप्त एवं उसके वंशज मौर्य कहलाये। इस प्रकार मौर्य लोग शूद्र कुल के ठहरते हैं, परन्तु यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यदि चन्द्रगुप्त शूद्र कुल का होता तो चाणक्य जैसा कट्टर ब्राह्मण कभी उसका साथ न देता और न ही उसको राजा बनने देता।


दूसरे मत के अनुसार, जिसमें बौद्ध ग्रन्थ आते हैं मौर्य शब्द प्राकृत भाषा के 'मोरिय' शब्द का रूपान्तर है। 'मोरिय' क्षेत्रिय थे, जो नेपाल की तराई में 'पिप्लिवन' नामक राज्य पर शासन करते थे। 'महापरिनिर्वाण' तथा 'दिव्यावदान' बौद्ध ग्रंथों में भी चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय माना गया है।


तीसरा मत 'परिशिष्टपर्वन के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के सरदार की एक कन्या का पुत्र था, जो क्षत्रिय वंश का था।


अधिकांश इतिहासकार अब इस बात को स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय राजकुमार था। उसने जिस राजवंश की स्थापना की वह मौर्य वंश कहलाया तथा जिस काल में उनके वंशजों ने शासन किया, वह मौर्यकाल कहलाया।


चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवनृत्त


चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवनृत्त का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया गया है-


1. चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन: चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 345 ई. पूर्व में हुआ था। इसके पिता सम्भवतः अपने राज्य से शत्रुओं द्वारा भगाये जाने पर पाटलिपुत्र के समीप आकर रहने लगे थे। चन्द्रगुप्त के पिता ने नन्द राजा की सेवा में नौकरी कर ली। परन्तु नन्द राजा और चन्द्रगुप्त के पिता में अनबन होने पर नन्द राजा ने चन्द्रगुप्त के पिता को मरवा डाला। उस समय चन्द्रगुप्त माँ के गर्भ में था। चन्द्रगुप्त की माँ छिपकर पाटलिपुत्र में ही बनी रही। जब चन्द्रगुप्त कुछ बड़ा हुआ तो उसने नन्द राजा की सेना में नौकरी कर ली। अपनी योग्यता एवं साहस से वह सेना का उच्च अधिकारी बन गया। वह जनता में लोकप्रिय हो गया जो कि नन्द शासक को अच्छा नहीं लगा और उसने चन्द्रगुप्त की हत्या करवाने की सोची। चन्द्रगुप्त को इस बात का पता लग गया और वह पाटलिपुत्र से भाग निकला। इस घटना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के मस्तिष्क में नन्द वंश को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय उत्पन्न कर दिया।


2. चाणक्य से मित्रता : इसी समय चन्द्रगुप्त की मित्रता चाणक्य नामक एक विद्वान ब्राह्मण से हुई। चाणक्य का भी नन्द राजा के हाथों घोर अपमान हो चुका था। इस पर चाणक्य ने भी नन्द वंश का अन्त करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य को उसकी योजना में उसको सहयोग देने वाला साथी मिल गया।


3. नन्दवंश के विरुद्ध विद्रोह अग्नि भड़काना : चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य ने नन्द राजा के विरुद्ध विद्रोह भड़काना तथा नन्द राजा को पराजित करने के साधन जुटाना प्रारम्भ कर दिया। तैयारियां पूरी करने के बाद उन्होंने मगध पर आक्रमण कर दिया, जिसको नन्द राजा ने बुरी तरह विफल कर दिया। चन्द्रगुप्त और चाणक्य मगध राज्य से भाग गये। वे मगध पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगे। चन्द्रगुप्त तो बहुत बड़ा विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। चाणक्य पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेशों की कमजोरियों को खूब जानता था। उसे आशंका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारी के हाथों पड़ सकता है। अतएव इस प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर वह एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करना चाहता था।


4. सिकन्दर की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न : नन्द राजाओं पर आक्रमण करने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर के पास गया। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतंत्र विचारों के कारण सिकन्दर उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मरवाने की आज्ञा दे दी, परन्तु चन्द्रगुप्त किसी प्रकार वहाँ से बच निकला। अब तो उसने नन्द राजाओं के साथ-साथ यूनानियों को भी भारत से खदेड़ने का निश्चय कर लिया।


5. चन्द्रगुप्त मौर्य एक विजेता के रूप में पंजाब पर अधिकार : अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की जनता को विदेशियों के विरुद्ध भड़काना आरम्भ किया। सिकन्दर के भारत से चले जाने के पश्चात् भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। चन्द्रगुप्त ने इन विद्रोहियों का नेतृत्व किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना प्रारम्भ किया। यूनानी सैनिक भारत छोड़कर भाग गये और जो यहाँ रह गये, उनको मरवा दिया गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना आधिपत्य कर लिया। डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि "इस प्रकार चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में भारतीय विद्रोह को सफलता प्राप्त हुई और पंजाब तथा सीमा प्रान्त चन्द्रगुप्त के अधिकार में आ गए।" 321 ई. पूर्व तक या इसी वर्ष में झेलम से लेकर सिन्धु तक का प्रदेश भी यूनानियों से छीन लिया गया। इसकी पुष्टि 321 ई. पूर्व में यूनानी सेनानायकों के मध्य सम्पन्न ट्रिपैरेडिसस की संधि से भी होती है। इसके कारण इसी वर्ष सिन्धु में नियुक्त क्षत्रप पैथान को भी हटा लिया गया। इस प्रकार सिन्धु और पंजाब पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया।


6. मगध राज्य पर आक्रमण : पंजाब को अपने अधिकार में करने के पश्चात् उसने मगध राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसकी सेना आगे बढ़ती हुई पाटलिपुत्र के निकट पहुँच गई। नन्द राजा धननन्द की पराजय हुई और वह युद्ध में मारा गया। अब 322 ई. पूर्व में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने उसका राज्याभिषेक कर दिया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने इस संबंध में लिखा है कि 323 ई. पूर्व की जून में सिकन्दर की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद यवन शक्ति का विध्वंस और नंदों की पराजय सिकन्दर की मृत्यु के दो-तीन वर्षे के भीतर ही संपादित हो चुकी होगी। अतः चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि हम 321 ई. पू. रख सकते हैं। डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ई. पूर्व में मगध की गद्दी पर बैठा अधिकांश विद्वान भी चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि 322 ई. पूर्व मानते हैं।


7. पश्चिम भारत के प्रदेशों पर विजय : चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र तक के सभी प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की थी। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है। कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में शामिल था। यहाँ उसने पुष्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था और पुष्यगुप्त ने ही सुदर्शन नाम की झील बनवाई थी।


8. दक्षिण भारत पर विजय : अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी अधिकार किया था। अशोक का साम्राज्य मैसूर तक फैला हुआ था। चूंकि अशोक ने कलिंग के अतिरिक्त अन्य किसी प्रदेश पर विजय प्राप्त नहीं की, इसलिए दक्षिणी भारत की विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त के दिया जा सकता है।


9. सेल्यूकस से संघर्ष भारत के विभिन्न प्रदेश जीतने के पश्चात् चन्द्रगुप्त का युद्ध सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर से हुआ। 305 ई. पूर्व में सिन्धु नदी के तट पर चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सेल्यूकस की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें सेल्यूकंस की पराजय हुई और विवश होकर उसको चन्द्रगुप्त से सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह भी चन्द्रगुप्त से कर दिया। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य को काबुल, कन्धार, हिरात तथा बिलोचिस्तान के प्रदेश दे दिये। उसने चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज नामक अपना राजदूत भी रख दिया। चन्द्रगुप्त ने उपहारस्वरूप 500 हाथी सेल्यूकस को दिये।


10. अन्य विजयें : रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन था। यहाँ उसने पुण्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त अवन्ति पर भी चन्द्रगुप्त मौर्य का अधिकार था। अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी विजय प्राप्त की थी। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक ने केवल कलिंग पर ही विजय प्राप्त की थी, अतः कश्मीर पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही अधिकार किया था। नेपाल और बंगाल भी चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन थे। महास्थान अभिलेख से बंगाल पर चन्द्रगुप्त मौर्य के आधिपत्य की पुष्टि होती है।


11. चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार : अनेक विजय प्राप्त करके चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य की सीमायें उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में तिनावली तक फैला दीं। इतना विशाल एकछत्र साम्राज्य भारत में पहले कभी स्थापित नहीं हुआ था। डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि “चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य हिन्दुकुश से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर मैसूर तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान के प्रदेश पंजाब, सिन्धु, कश्मीर, नेपाल, गंगा, यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, कलिंग, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी भारत का मैसूर तक का प्रदेश सम्मिलित था।"


12. मृत्यु : चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष शासन किया। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्मावलम्बी था, पर अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उसने जैन धर्म अपना लिया, फिर भी अन्य धर्मों के प्रति वह उदार और सहिष्णु था। अन्त में, उसने जैन साधु की भाँति उपवास और तप करके देह त्याग दी।


मूल्यांकन : डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, "मौर्य साम्राज्य का अगमन भारतीय इतिहास की एक अपूर्व घटना है। जिस कठिन समय में इस वंश ने अपनी नींव को दृढ़ किया, उस समय को देखकर तो सचमुच इसका स्थान बहुत उँचा हो जाता है। वह समय संकट का था और सिकन्दर का भारत पर आक्रमण हो चुका था।"


डॉ० वी० ए० स्मिथ के अनुसार, "मौर्यो के आगमन के साथ इतिहास के क्षेत्र में भी प्रकाश की ज्वलन्त किरणें फैलने लगती है। 18 वर्षों का लम्बा समय लगाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मकदूनिया के सिपाहियों को भारत की सीमा से खदेड़ा, विशेषकर पंजाब और सिन्ध की भूमि से उन्हें बाहर धकेल दिया। सेल्यूकस की शक्ति को उसने क्षीण कर दिया और स्वयं उत्तरी भारत का निर्विवाद सम्राट बना। अरियाना प्रदेश के बहुत बड़े भाग पर भी उसका अधिकार था। ये सभी विशेषतायें उसे इतिहास के महानतम और सफल शासकों के बीच स्थान देती है।"


Achievements of Chandragupta Maurya
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Sunday, 5 December 2021

History of Jordan

ओस्मान साम्राज्य काल में जोर्डन (Jordan) एक उपेक्षित प्रदेश था। दमिश्क-मदीना रेल-मर्ग यहाँ से गुरजता था। इसके प्रदेशों-अमन (Amman), जेराश (Jerash) और पेट्रा (Petra) में आज भी यूनानी-रोमन अवशेष देखे जा सकते हैं। पश्चिमी पर्वतीय प्रदेश ट्रांस जोर्डन में लगभग पाँच लाख लोग रहते थे। इसका पूर्वी भाग रेगिस्तान जो इराक को सीरिया और हजाज से अलग करता है। प्रथम विश्वयुद्ध काल में ट्रांसजोर्डन फैजल को अरब सेना और तुर्की की सेना का युद्ध-स्थल था। युद्धकाल में हजाज रेल मार्ग की बड़ी क्षति हुई।

नवम्बर 1918 और जुलाई 1920 के बीच क्षणिक अरब राज्य सौरिया का एक अभिन्न अंग था लेकिन दक्षिणी सीमाएँ अनिश्चित थीं। उत्तर में अमन और केराक (Kerak) दमिश्क सरकार के अधीन थे, दक्षिण का मान (Mann) शहर और लाल सागर में अकाबा (Aqaba) बन्दरगाह हजाज के राजा हुसेन के प्रति भक्ति-भाव प्रकट करते थे। राजा हुसेन उस समय संपूर्ण अरब जगत का शासक समझता था। जुलाई, 1920 से मार्च, 1921 तक सोरिया में फैजल सरकार के पतन के बाद ट्रांसजोर्डन में कोई सरकार न थी। इस समय यह प्रदेश ब्रिटिश अधिकारियों को देख-रेख में था क्योंकि फिलीस्तान पर ब्रिटिश संरक्षण शासन था।

फरवरी, 1921 में राजा हुसेन का दूसरा लड़का अमीर अब्दुला ट्रांसजोर्डन आया। उसका इरादा फ्रांसीसी अधिकृत सीरिया पर आक्रमण कर वहाँ फैजल का शक्ति पुनर्स्थापन करना था। किन्तु उपनिवेश सचिव विन्स्टन चर्चिल ने उसे ट्रांस जोर्डन का अमीन बनने के लिए राजी कर लिया। अप्रैल, 1921 को अब्दुला अमान का अमीर बनाया गया। उसे ब्रिटिश सरकार से प्रतिमाह पाँच हजार पौंड दिया जाने लगा। 1882 में अब्दुला का जन्म हुआ था। वह शुरू से ही राजनीति में सक्रिय था। युद्ध के पूर्व वह उस्मान संसद में हजाज का प्रतिनिधि और उपाध्यक्ष था। बाद में वह अपने पिता का विदेश मंत्री बना। वह अपने विजेता भाई फैजल के सामने थोड़ा मन्द पड़ जाता था। 1919 में तुराबा (Turaba) में वह इन सऊद द्वारा पराजित किया गया। इससे उसकी प्रतिष्ठा जाती रही। 1920 में दमिश्क की सोरियाई सम्मेलन (Syrian Congress) ने उसे इसक का राजा बनाया। किन्तु, शीघ्र ही फ्रांसीसियों ने उसे हटा दिया और बाद में ब्रिटिश सरकार न उसे इराक का राजा बनाया। अब्दुला की योजनाएँ विफल रहीं और उसे ट्रांसजोर्डन का शासक बनकर संतुष्ट होना पड़ा। किन्तु, इब्न सऊद उसके प्रदेश को हड़पना चाहता था। 1927 को जड्डा सधि (Treaty of Jidda) द्वारा इब्न सऊद ने ट्रांसजोर्डन का मान और अकाबा पर अधिकार मान लिया।

ट्रॉसजोर्डन का यहूदियों के राष्ट्रीय गृह समस्या से कोई संबंध नहीं था। ब्रिटेन अतिरिक्त और किसी यूरोपीय देश वहाँ कोई सरोकार नहीं था। अत: यह महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्रिता और कुचक्र से अछूता रहा। ब्रिटेन का इस रेगिस्तानी भाग में मुख्य तीन हित थे। यह भूमध्यसागर और फारस की खाड़ी के बीच ब्रिटिश नियंत्रित स्थल मार्ग से संबंधित था। द्वितीय, इसका शासक एक हश्मी (Hashimi) राजकुमार था और ब्रिटेन की नीति हश्मियों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने की थी। तृतीय, यह एक अरब प्रदेश था तथा इसके महत्वहीन होने के बावजूद भी ब्रिटेन इसे किसी दूसरे यूरोपीय राज्य के अधीन देखना नहीं चाहता था।

सरकार और सैनिक दल (Government and Military Forces)- ब्रिटिश सह-उपनिवेशों की भाँति ट्रांसजोर्ड का शासन-प्रबंध किया गया। वहाँ अमीर अब्दुला का देशी शासन था। दमिश्क के फैजल ने इसके सैनिक और असैनिक पदाधिकारियों को नियुक्ति की थी। अप्रैल, 1928 को अब्दुला की सहमति से ब्रिटिश अधिकारियों ने ट्रांसजोर्डन के लिए एक आगिक विधि (Organic Law) की घोषणा की। इसने अमीर को विधायनी और प्रशासकीय अधिकार प्रदान किए। उसकी सहायता के लिए एक कार्यपालिका और एक विधायिका परिषद थी। व्यवस्थापिका परिषद का गठन अप्रत्यक्ष मताधिकार द्वारा होता था अल्संख्यकों और बेदुइनों (Bedouins) को भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व किया गया।

उपर्युक्त देशी ढाँचा के ऊपर फिलीस्तीन और ट्रांसजोर्डन में ब्रिटिश संरक्षण शासन था। इसके लिए अमन में एक स्थायी रेजीडेंट रखा गया। रेजीडेंट अरब प्रशासन का पर्यवेक्षण करता था। वह ब्रिटिश परामर्शदाताओं और प्रशासकों द्वारा इसको मदद करता था। ये परामर्शदाता और प्रशासक विविध सरकारी विभागों में थे। 20 फरवरी, 1928 को जेरूसलम में एक आंग्ल-ट्रांसजोडियन समझौता पर हस्ताक्षर किया गया। इसने इस क्षेत्र पर ब्रिटेन की सर्वोच्च सत्ता की संपुष्टि कर दी। ब्रिटिश रेजीडेंट को विधायनी, वैदेशिक मामलों, वित्तीय मामलों, विदेशियों और अल्पसंख्यकों को रक्षा के लिए विशेषाधिकार दिए गए। 1934 के एक संशोधन द्वारा अमोर को विदेशों में वाणिज्य दूतों का नियुक्ति अधिकार दिया गया।

शुरू से ही ट्रांसजोर्डन को ब्रिटिश आर्थिक सहायता मिलती रही। यह आर्थिक सहायता प्रतिवर्ष एक लाख पौंड तक थी। 1940 के बाद यह बढ़कर प्रतिवर्ष बोस लाख पाँड़ हो गई। आर्थिक सहायता के राजनीतिक और आर्थिक कारण थे। आर्थिक दृष्टिकोण से ट्रांसजोर्डन एक निर्धन इलाका था। कृषि और पशुपालन जीविका के मुख्य साधन थे। ट्रांसजोर्डन को फिलीस्तीन के चुंगी क्षेत्र में रखा गया था। यह तस्करियों का अड्डा था। सीरिया, सऊदी अरब और ईराक के साथ इसकी सीमाओं की कमजोर पहरेदारी के कारण तस्करी आसान और आकर्षक हो गई थी।

अमीर की अरबी सेना (Arab Legion) काफी मशहूर थी। 1921 में इसकी स्थापना हुई थी। इसमें एक हजार सैनिक थे। कालांतर में इस सेना की संख्या और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। इसका गठन कैप्टन एफ० जो० पौक (F. Peake) ने किया था जिसने युद्धकाल में मिनी ऊँट दल (Egyptian Camel Corps) का नेतृत्व किया था पीक ने अरबी सेना की मदद से ना (Bedouin)का सामना किया, महाबी इवान (Wahlhahi [khwan) के हमले को स किया और व्यवस्था कायम रखी। उसकी पूर्ण सेवा के लिए अमीर ने उसे पा की पदवों से विभूषित किया। 1939 में उसकी जगह पर मेजर जॉन बेगोर ग्लूब (Major John Bagot Glubh) आया अरबी सेना में स्वयंसेवक थे जिसमें अरब जाति का कोई भी स्वस्थ युवक शामिल हो सकता था। इसमें केवल ट्रांसजोडिनियन ही नहीं अपितु इराकी, हेजाजी, फिलिस्तीनियन, सोरियन आदि भी थे। इस तरह यह बृहत् अरब सेना (Pan-Arab Army) का केन्द्रबिन्दु और ब्रिटिश नीति का महत्वपूर्ण वाहक थी।

अरब सेना के अतिरिक्त वहाँ एक ट्रांसजोर्डन सीमा क्षेत्र (Transjordan frontier Force) भी था। इसका गठन 1928 के आंग्ल-ट्रांसजोर्डियन संधि के बाद हुआ था। सीमा रक्षा इसका मुख्य काम था। यह ब्रिटिश सरकार का दायित्व था अतः सीमा दल ब्रिटिश साम्राज्यीय प्रवन्ध था जो फिलीस्तीन के उच्चायुक्त के अधीन था।

द्वितीय विश्वयुद्ध काल में अरब सेना (Arab Legion) और ट्रांसजोर्डन सीमा दल (Transjordan Frontier Force) का आधुनिकीकरण किया गया और दोनों का उपयोग ट्रांसजोर्डन की सीमा के बाहर किया गया। 1940 में अरब सेना में मरू यंत्रीकृत टुकड़ी (Desert Mechanized Regiment) का सृजन किया गया। इससे इसकी क्षमता और भी बढ़ गई। 1941 में ईराक में रशीद अली के विद्रोह दमन में मंत्रीकृत टुकड़ी ने महत्वपूर्ण भाग लिया। शीघ्र हो इसने सीरियाई अभियान में भाग लिया। अरब सेना के सुसन्जित करने के कारण ट्रांसजोर्डन को दी जाने वाली आर्थिक सहायता की राशि बढ़ गई। 1948 में अरब इजरायली युद्धकाल में अरब सेना ने महत्वपूर्ण भाग लिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध काल में ट्रांसजोर्डन का इतिहास घटना शून्य है। आन्तरिक समस्या केवल शांति व्यवस्था कायम रखने की थी जिससे व्यापार व्यवसाय के विकास में किसी प्रकार की बाधा न पहुंचे। साथ हो खाना बदशियों के लूट-पाट से वहाँ के निवासियों को सुरक्षा प्रदान करना था। ट्रांसजोर्डन से गुजरने वाला इजाज रेल मार्ग की मरम्मत करा दी गई और उस पर रेलगाड़ी दौड़ने लगी। किन्तु हेजाज और संरक्षण शक्तियों के बीच रेलवे को कानूनी स्थिति में विवाद उत्पन्न होने के फलस्वरूप सीरियाई और हेजाजी क्षेत्रों में रेल मार्ग का पुनस्थापन नहीं हुआ। इससे ट्रांसजोर्डन को आर्थिक क्षति उठानी पड़ी।

ट्रांसजोर्डन के अल्पसंख्यकों की कोई समस्या नहीं थी। 1944 में इनकी संख्या तीन लाख चालीस हजार थी जिनमें अधिकांश अरब और सुन्नी मुस्लिम थे। युद्धकाल में ट्रांसजोर्डन के शासन का प्रधान तौफिक पाशा अबुल हुदा (Tewfik Pasha Abul Huda) था। वह ब्रिटिश संरक्षण प्रणाली के पर्यवेक्षण के अधीन था। इस काल में राजनीतिक स्थायित्व और शांति बनी रही। 1938 में आगिक विधि में संशोधन और 1941 में ब्रिटेन के साथ समझौता के बावजूद भी ब्रिटिश राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिमान में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया।

द्वितीय विश्वयुद्ध से ट्रांसजोर्डन प्रदेश अछूता रहा। इसने इसे केवल अप्रत्यक्ष ढंग से प्रभावित किया केवल एक महत्वपूर्ण घटना अरब सेना ईसकी और सोरियाई अभियानों में भाग लेने को थी। अल्पकाल के लिए अमन ईसकी राजनीतिज्ञों का शरण-स्थल बन गया। वे रशीद अली के सैनिक विपल्व के समय बगदाद से भाग गए थे। एक अन्य घटना 1938 और 1941 के बीच हैफा-बगदाद (Haifa Baghdad) सड़क के निर्माण की थी। इसकी कुल लम्बाई 1880 किलोमीटर थी जिनमें 340 किलोमीटर ट्रांसजोर्डन से गुजरती थी। यह राजमार्ग ब्रिटिश साम्राज्यीय आवश्यकतानुकूल था युद्धकाल में इससे सेना और सैन्य सामग्री भेजी गई। फलतः ब्रिटेन के लिए ट्रांसजोर्डन का सामरिक महत्व बढ़ गया। 

1921 और 1945 के बीच ट्रांसजोर्डन की विदेश नीति के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह कमजोर और पूर्णत: ब्रिटेन पर आश्रित था। हजाज पर इन सऊद की विजय के समय से सऊद और अमीर अब्दुला के बीच दुश्मनी भी रही। अब्दुला ने उत्तर में बहाबी विस्तार को रोक दिया। उसने वृहत्तर सोरिया की योजना भी बनाई। लेकिन यह योजना अपूर्ण रही। ब्रिटेन को संरक्षण प्रणाली के अन्तर्गत ट्रांसजोर्डन में ईराक और मिस्र की तरह कोई विद्रोह नहीं हुआ। ब्रिटेन और अमीर अब्दुला में सद्भावनापूर्ण वातावरण बना रहा। वह राजकीय वायु सेना का अवैतनिक कमोडोर (Commodore of the Royal Air Force) बना दिया गया। 1943-44 में ब्रिटेन ने युद्ध के बाद ट्रांसजोर्डन को स्वतंत्र करने की घोषण की। फलत: जब 1946 में संयुक्त राष्ट्र में संरक्षण प्रणाली पर विचार-विमर्श शुरू हुआ तो ब्रिटिश प्रतिनिधि ने ट्रांसजोर्डन को संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में गठित ट्रस्टीशिप में नहीं रखने और इसे शीघ्र स्वतंत्र करने की घोषणा को इसके शीघ्र ही बाद 22 मार्च, 1946 को लन्दन में ब्रिटेन और ट्रांसजोर्डन ने एक संधि पर हस्ताक्षर किया जो 1930 की आंग्ल-ईराकी सौंध से मिलती-जुलती थी। इसके अनुसार ब्रिटेन ने ट्रांसजोर्डन को एक स्वतंत्र राज्य की मान्यता दे दी, राजनीतिक प्रतिनिधियों का आदान-प्रदान करना मान लिया, अरब सेना को आर्थिक सहायता देने और अमोर को वाह्याक्रमण में सुरक्षा प्रदान करने का वचन दिया। इसके बदले में ब्रिटेन को ट्रांसजोर्डन की भूमि पर सेना रखने, इसके यातायात को सुविधाओं का उपयोग करने और अब्दुला के सशस्त्र सैनिकों को प्रशिक्षण देने का अधिकार मिल गया। दोनों देशों ने वैदेशिक मामलों में एक-दूसरे के सामान्य हितों पर सम्पर्क स्थापित करना मान लिया।

25 अप्रैल, 1946 को अमीर अब्दुला ने राजा की पदवी धारण की. ट्रांसजोर्डन के बुद्धिजीवि उपर्युक्त संधि से खुश न थे। अतः ब्रिटेन ने सधि में संशोधन करने का प्रस्ताव मान लिया। 18 मार्च, 1948 को अमन में आंग्ल-ट्रांसजोर्डिनियन संधि पर हस्ताक्षर किया गया। यह पहली स से भिन्न थी। अब ट्रांसजोर्डन में ब्रिटेन के सैनिक विशेषाधिकारों में कमी को गई। फिर भी ट्रांसजोर्डन की दो हवाईपट्टियाँ (अमन और माफर) पर ब्रिटेन का नियंत्रण बना रहा। साथ हो ट्रांसजोर्डन की वाह्य सुरक्षा के लिए एक आंग्ल-ट्रांसजोर्डिनियन संयुक्त प्रतिरक्षा पचंद (Anglo Transjordzmian Joint Defense Board) की स्थापना की गई।

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Friday, 3 December 2021

The life and teachings of Mahavira

जैन परम्पराओं के अनुसार महावीर से पहले इस धर्म 23 गुरू हो चुके थे, जो तीर्थकर कहलाते थे। महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे। प्रारम्भिक तीर्थकरों के संबंध में जानकारी वैदिक साहित्य में मिलती है। सबसे पहले तीर्थंकर ऋषभदेव थे। केवल अन्तिम दो अर्थात् 23 वें और 24 वे तीर्थकर का ही वर्णन इतिहास में मिलता है। 23 वे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी ने अपने अनुयायियों को जैन-धर्म के चार प्रमुख सिद्धान्त बतलाये थे- 1. अहिंसा 2. सत्य सम्भाषण 3. अस्तेय 4. अपरिग्रह। महावीर स्वामी के जन्म से ठीक 250 वर्ष पूर्व इन्होंने निर्वाण प्राप्त किये। 

महावीर का जीवनवृत्त : जैनियों के सबसे अन्तिम चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। जैन धर्म को व्यापक तथा लोकप्रिय बनाने का श्रेय मुख्यतः इन्हीं को है। उनका जन्म आधुनिक बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिला में स्थित वैशाली के समीप कुण्डग्राम में ईसा से 599 वर्ष पूर्व हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो वृज्जियों के ज्ञातृक कुल के थे। इनकी माता का नाम त्रिशला था जो वैशाली के राजा चेटक की बहन थी। सिद्धार्थ को त्रिशला से तीन सन्ताने हुई थी, एक कन्या और दो पुत्र। बड़े पुत्र का नाम नन्दिवर्धन था और छोटे पुत्र का नाम वर्धमान यही आगे चलकर महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए। वर्धमान को बड़े होने पर यशोदा नामक युवती से विवाह हुआ जिससे एक लड़की पैदा हुई। माता-पिता के देहान्त के बाद तीस वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर वर्धमान ने घर छोड़ जंगल की राह ली। उन्होंने वन में जाकर ज्ञान प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक कठोर तपस्या की। लोगों ने उन्हें लाठियों से मारा, इनपर ईट-पत्थर तथा गन्दी वस्तुएँ फेंकी, उनकी खिल्ली उड़ायी गयी और अन्य तरीकों से उनकी तपस्या भंग करने का प्रयत्न किया। लेकिन वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। इस कठोर तपस्या के प्रभाव से उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और उनका हृदय ज्ञान-लोक से जगमगा उठा। अब उन्होंने सांसारिक बन्धनों को तोड़कर माया मोह से छुटकारा पा लिया। अतः वे निर्ग्रन्थ कहलाये, जिनका अर्थ होता है बन्धनहीन। उन्होंने अपने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। अतएव वे 'जिन' कहलाये। उन्हें बारह वर्ष की तपस्या के पश्चात् जृम्भिक ग्राम के वाह ऋजुपालिका नदी के तट पर कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तभी से वे अर्हत (पूजनीय) कहलाने लगे। अपार धीरज के साथ उन्होंने सभी मुसीबतों का सामना किया अतएव वे महावीर कहलाये। जितेन्द्रिय बन जाने से वे 'जैन' कहलाने लगे। .

ज्ञान प्राप्त करने के बाद तीस वर्ष तक उन्होंने घूम-घूमकर मगध, कौशल, अंग मिथिला, काशी आदि प्रदेशों में अपनी शिक्षा का प्रचार किया। महावीर के उपदेश: महावीर ने पाँच मुख्य उपदेश दिए। ये पाँच महावत है (i) अहिंसा (ii) सत्य (iii) अस्तेय (चोरी न करना) (iv) अपरिग्रह (v) ब्रह्मचर्य 

(i) अहिंसा: महावीर घोर अहिंसावादी थे। उनका कहना था कि संसार के कण-कण में जीव है। उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। उनके शिष्य रात्रि आरम्भ होने के पहले ही भोजन कर लेते हैं ताकि अन्धकार में कोई कीड़े-मकोड़े न मर जाएं। 

(ii) सत्य: सत्य का मतलब है झूठ नहीं बोलना चाहिए। अप्रिय या कठोर बात नहीं बोलनी चाहिए। किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए।

(iii) अस्तेय: किसी की चीज चुरानी नहीं चाहिए। चोरी का माल खरीदना, किसी तरह की मिलावट करना, कम तौलना, सरकारी आदेश का पालन न करना इत्यादि भी चोरी के ही प्रकार है। इनसे बचना चाहिए। 

(iv) अपरिग्रह: धन का संग्रह नहीं करना चाहिए। विनोबा भावे का कहना था - "पेट भर खाओ, लेकिन पेटी भर कर न रखो।" धन से मोह बढ़ता है। मोह से बन्धन और पक्का हो जाता है। इस प्रकार धन मुक्ति के मार्ग में बाधक है। 

(v) ब्रह्मचर्य: काम-वासना को मारना चाहिए। कामुकता मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है।

त्रिरत्न : महावीर के अनुसार मनुष्य अज्ञानतावश ही काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद के वशीभूत होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए इन तीन साधनों का प्रतिपादन किया जो त्रिरत्न के नाम से विख्यात हुए। ये हैं-(i) सम्यक् ज्ञान (ii) सम्यक् दर्शन और (iii) सम्यक् चरित्र। 

सम्यक् ज्ञान का अर्थ है, सच्चा और पूर्ण ज्ञान बिना सम्यक् ज्ञान के मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, उसका ज्ञान समस्त तीर्थंकर के उपदेशों के अध्ययन से होता है। 

सम्यक् दर्शन भी इनके लिए आवश्यक है। सभी मनुष्यों के लिए यह अच्छा है कि वे संसार के सभी जीवधारियों को एक समान समझे। यही इनका सम्यक् दर्शन था। सम्यक् दर्शन से ही सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति होती है और मनुष्य को अज्ञानता, क्रोध, लोभ, मोह आदि से छुटकारा प्राप्त हो जाता है।

सम्यक् चरित्र का अर्थ है उच्च नैतिक स्तर। इसके लिए मनुष्य को अपनी इन्द्रियों, भाषण और कर्मों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए। इसकी प्राप्ति इन्द्रियों, विचारों और भाषाणों पर नियंत्रण रखने से होती है। इस त्रिरत्न की प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य और उनकी आत्मा दोनों को कर्म के बन्धन से मुक्ति मिल जाती है। 

जैन धर्म के सिद्धान्त: सम्पूर्ण जैन-साहित्य के अध्ययन के बाद जैन धर्म के निम्नलिखिति सिद्धान्त स्पष्ट होते हैं -

ईश्वर सम्वन्धी विचार: विद्वानों में मतभेद है, लेकिन अब यह निश्चित हो चुका है कि जैन धर्मावलम्बी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि सृष्टि अथवा विश्व का संचालन करने के लिए ईश्वर जैसी किसी अलौकिक सत्ता की आवश्यकता नहीं है। इस धर्म तीर्थंकरों को ही ईश्वर कहा गया है तथा मन्दिरों में देवी-देवताओं के बजाय तीर्थंकरों की ही पूजा की जाती है। जैन धर्म में ईश्वर को निराकार माना गया है। वे ईश्वर को सर्वज्ञ और वीतराग मानते हैं।

आत्मवाद: महावीर का कहना था कि विश्व में दो बुनियादी पदार्थ हैं, जीव और अजीव, दोनों ही अनादि है। उन्हें किसी ने बनाया नहीं है और दोनों ही स्वतंत्र है। जीव का अर्थ आत्मा ही है। जीवन केवल मनुष्य, पशु और वनस्पति में ही नहीं प्राकृतिक वस्तुओं में भी जीव है। संसार में अगणित जीत है, और सब एक समान है। विश्व जीव और सजीव के घात-प्रतिघात से चलता है और कार्य करता है।

कर्म की प्रधानता: जैन धर्मावलम्बी कर्म की प्रधानता को मानतें हैं। लोगों का विश्वास है कि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों से ही इस बात का निर्णय होता है कि किस देश में हमारा जन्म होगा और कैसा हमारा शरीर होगा। कर्म अनेक प्रकार के होते हैं और उनका फल भी विभिन्न प्रकार का होता है, कर्म फल के प्रभाव से ही वह राजा के अथवा भंगी के घर जन्म लेता है। इस जन्म में अच्छे कर्म करके मनुष्य अपना भविष्य अच्छा बना लेता है। उसे अपने कर्मों के लिए। फल अवश्य भोगना पड़ता है। क्रोध, माया, लोभ के कारण ही आत्मा बन्धन में पड़ती है। जैन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर विश्वास करता है। उसके अनुसार मानव बार-बार जन्म लेता है। वे विश्वास करते हैं कि आत्मा बहुत से बन्धनों में बंधी हुई है। जैन मतावलम्बी आत्मा के अस्तित्व तथा उसके अमरत्व पर विश्वास करते हैं। ये लोग आत्मा को सर्वद्रष्टा समझते हैं, परन्तु उनको यह धारणा है कि कर्म के बन्धनों के कारण उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। जैनियों का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग है, यद्यपि इसकी कोई मूर्ति नहीं होती, परन्तु प्रकाश की भाँति यह अपना अस्तित्व रखती है।

आत्मा की मुक्ति: आत्मा को कर्म-बन्धन से मुक्त करने के लिए जैन-धर्म, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और और सम्यक् कर्म-रूपी त्रिरत्न को पर्याप्त समझता है। महावीर के शरीर की तरह आत्मा सभी जीवधारियों के शरीर में निवास करती है। इसलिए सभी मनुष्यों के लिए। यह अच्छा है कि वह संसार के सभी जीवधारियों को एक समान समझें।

तपस्या: महावीर ने कठिन तपस्या पर जोर दिया। उन्हें स्वयं कठिन तप के बाद ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। भिक्षुकों के लिए व्रत, शरीर को कष्ट देना तथा गम्भीर ध्यान और मनन आवश्यक है। मुख्य रूप से तपस्या दो प्रकार की होती है-एक है बाह्य तपस्या जिसमें अनशन, काया को कष्ट देना तथा रसों का परित्याग सम्मिलित है। दूसरी प्रकार की तपस्या में पाप का प्रायश्चित करना, विनय, सेवा, ध्यान और स्वाध्याय सम्मिलित है।

पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को शरीर को वस्त्र से ढँकने को कहा था, किन्तु महावीर ने सबको नंगे रहने को बतलाया। इसी पृष्ठभूमि में आगे चलकर जैनियों के दो सम्प्रदाय हो गये-(i) श्वेताम्बर तथा दिगम्बर। श्वेत वस्त्र धारण करने वाले श्वेताम्बर कहलाये तथा वस्त्रहीन रहनेवाले दिगम्बर कहलाये।

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Friday, 12 November 2021

Humanity and its impacts on European society

इतिहासकार हेज के अनुसार, "नवजागरण की प्रस्तुति मानवतावाद द्वारा हुई।" मानववाद का तात्पर्य उन्नत ज्ञान से लिया जाता है। दूसरे शब्दों में, मानववाद वह धारणां थी जिसने एक ओर तो प्राचीन साहित्य में ही सभी गुण, मानवता, माधुर्य, सौन्दर्य एवं जीवन का वास्तविक सार देखा, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिकता, वैराग्य एवं धर्मशास्त्रों की सार्थकता से स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस धारणा को स्वीकार करने वाले मानववादी कहलाए। प्राचीन यूनानी सभ्यता एवं संस्कृति का पक्षपाती पैट्रार्क (Petrarch) मानववाद का पिता (Father of the Humanism) कहा जाता है। माइकेल एंजेलो, दोनातेलो, मैकियावेली, फेचिनोपोलिशियन, पेरुजिनो, लियोनार्डो द विंची, ल्यूका देला रोबिया, फ्रा फिलिपो लिप्पी, सैंड्रो बातिचेली, दान्ते एवं अलबर्टी आदि पुनर्जागरण काल के अन्य मानववादी थे। इन मानववादियों ने तत्कालीन समाज की प्रमुख समस्याओं पर कड़ा प्रहार किया। मध्ययुगीन विचारधारा में धर्म एवं धर्म की आड़ पर अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का बाहुल्य था, जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष होने के कारण शिक्षा का केन्द्र-बिन्दु धर्म ग्रन्थों का अध्ययन था। ऐसी स्थिति में स्वतंत्र चिन्तन का विकास अवरुद्ध हो गया था।

मानववादियों ने मध्ययुगीन व्यवस्था के विरोध में आवाज उठाई और धार्मिक विषयो के स्थान पर विज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र, इतिहास एवं भूगोल जैसे विषयों के अध्ययन-अध्यापन पर बल दिया, संयोग-वियोग, प्रेम-घृणा, नारी सौन्दर्य एवं दाम्पत्य जीवन जैसी सामाजिक समस्याओं जैसे विषयों को अधिक महत्व दिया न कि मोक्ष को। मानववादियों ने इहलोक को ही स्वर्ग बनाने पर जोर दिया। मानव-स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीय निष्ठा पर बल दिया। यह उल्लेखनीय है कि 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक मानववादी आन्दोलन का प्रबल ज्वार इटली में था। इसका सबसे प्रमुख कारण यह था कि इस समय इटली में शांति एवं सुव्यवस्था थी। दूसरी ओर जब पूर्वी यूरोप एवं कुस्तुन्तुनिया पर तुको का आधिपत्य स्थापित हो गया तो वहाँ से अनेक विद्वान, विद्यार्थी एवं अध्यापक, कलाकार आदि भागकर इटली आ गए और शीघ्र ही इटली का प्रसिद्ध नगर फ्लोरेंस मानववादी आन्दोलन का गढ़ बन गया।

मानववादियों के भरसक प्रयत्नों से मध्ययुगीन व्यवस्था की दीवारें हिलने लगीं। इटली के सभ्य एवं सुसंस्कृत वर्ग ने प्राचीन साहित्य एवं कला का अध्ययन जीवन का आवश्यक अंग बना लिया। लोगों के हृदय में लौकिक एवं पारलौकिक जीवन के प्रति जो धारणाएँ मध्यकाल से चली आ रही थी उनके प्रति आस्था समाप्त हो गई। मठों की क्रियाओं को हास्यास्पद समझा जाने लगा। भौतिकवादी शिक्षा को सम्बल मिला। हेज के अनुसार, ‘विश्वविद्यालयों में ग्रीक इतिहास का परिचय दिया जाने लगा।" विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना होने लगी। इतिहासकार हेज ने इसी प्रकार की एक संस्था का उल्लेख किया है जिसने मानववाद को पोषित किया। अब मानववाद इटली तक ही सीमित नहीं रहा, उसकी जड़ें यूरोप में फैलने लगी और धीरे-धीरे मानववाद ने यूरोप में पुनर्जागरण पैदा कर धर्म सुधार आन्दोलन के मार्ग को प्रशस्त कर दिया।

पुनर्जागरण के कारण यूरोप के जीवन में आमूल परिवर्तन हुआ। मध्ययुगीन विश्वासी, धारणाओं एवं प्रथाओं के विरुद्ध विद्रोह का शंख फूंककर पुनर्जागरण ने यूरोप में आधुनिक युग का आह्वान किया। इस प्रकार पुनर्जागरण विश्व इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वस्तुत: पुनर्जागरण के फलस्वरूप ही यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ तथा अध्यात्मवाद पर भौतिकवाद की विजय हुई। पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप अन्धविश्वास का स्थान तर्क तथा विचार स्वातंत्र्य ने ले लिया। फलतः आधुनिक विज्ञान को नीव पड़ी। पुनर्जागरण ने इसके अतिरिक्त व्यक्तिवाद (Individualism) की शिक्षा दी। 16वीं शताब्दी के पूर्व लोग अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य या अन्तर्राष्ट्रीय चर्च में विश्वास करते थे। परन्तु, व्यक्तिवाद के सिद्धांत ने राष्ट्रीयता (Nationalism) के सिद्धांतों को जन्म दिया। मध्यकालीन युग में 'Papacy' अन्तर्राष्ट्रीय सत्ता थी, परन्तु जब लोगों की श्रद्धा उसमें नहीं रही तो लोग अपने अपने राष्ट्र के विकास के लिए प्रयत्न करने लगे। इस तरह पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप जिस राष्ट्रीयता को भावना का उदय हुआ उससे वस्तुतः राष्ट्रीय संस्कृति का भी जन्म हुआ। पुनर्जागरण की प्रमुख विशेषताएँ या महत्व निम्नलिखित थी-

1. स्वतंत्र चिन्तन को प्रोत्साहन : पुनर्जागरण ने स्वतंत्र चिन्तन को विचारबाग को प्रोत्साहन दिया। अब यूरोपियन लोगों ने परम्परागत विचारधाराओं को तर्क की कसौटी पर कसना शुरू कर दिया। अब उनमें तार्किक दृष्टिकोण का विकास हुआ।

2. मानववादी विचारधारा का विकास : पुनर्जागरण के फलस्वरूप मानववादी : विचारधारा का विकास हुआ। मानववादियों ने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य को परलोक की चिन्ता छोड़कर इस जीवन को आनन्द से व्यतीत करना चाहिए। मानववादियों ने धर्म और मोक्ष के स्थान पर सम्पूर्ण समाज के उद्धार पर बल दिया। उन्होंने सत्य, तर्क और नवीन दृष्टिकोण का प्रचार किया।

3. प्राचीन रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का विरोध : पुनर्जागरण ने प्राचीन रूढ़ियों, अन्धविश्वासी तथा धार्मिक पाखण्डी और आडम्बरों पर कुठाराघात किया। इसके फलस्वरूप मनुष्य स्वतंत्र रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास कर सका।

4. देशी भाषाओं का विकास : पुनर्जागरण के फलस्वरूप देशी भाषाओं का विकास हुआ। पुनर्जागरण के कारण विद्वानों ने बोलचाल की भाषा में पुस्तक लिखी जिसके फलस्वरूप देशी भाषाओं का विकास हुआ।

5. वैज्ञानिक विचारधारा का विकास : पुनर्जागरण के कारण वैज्ञानिक विचारधारा 2 का विकास हुआ। अब लोगों का झुकाव तर्क, प्रयोग और विज्ञान की और होने लगा। अब उसका विश्वास परम्परागत रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों से हटने लगा।

                                पुनर्जागरण के प्रभाव (महत्व)

पुनर्जागरण के निम्नलिखित प्रभाव हुए - 1. भौतिकवाद की प्रधानता : पुनर्जागरण का प्रभाव यूरोप पर बड़े ही गहरे रूप में पड़ा। इसने यूरोप के निवासियों में राष्ट्रीयता की भावना प्रज्ज्वलित कर दी। इसने अध्यात्मवाद पर भौतिकवाद की विजय की घोषणा की। इसका परिणाम यह हुआ कि अध्यात्मवाद का पलड़ा भौतिकवाद के सामने झुक गया। मैकियावेली ने इस नई भावना का परिचय अपनी पुस्तक 'दि प्रिंस' में दिया है। उसका कहना था कि राष्ट्र ही समाज का पथप्रदर्शक है। राष्ट्रहित के लिए भला-बुरा कोई भी मार्ग अपनाना उचित है।

2. धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन : पुनर्जागरण के फलस्वरूप लोगों के धार्मिक दृष्टिकोण में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया उस नए दृष्टिकोण से ही यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन संभव हो सका चर्च की सत्ता विश्वास और अधिकार की नीव पर अवलंबित थी, परन्तु पुनर्जागरण ने उस नीव को हिला दिया। अब बुद्धि और अनुभव पर ही विशेष जोर दिया जाने लगा। पुनर्जागरण ने यह बताया कि जो वस्तु बुद्धि से परे है, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।

3. ज्ञान-विज्ञान की रक्षा : पुनर्जागरण के फलस्वरूप प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की रक्षा हुई। इससे लोगों के दृष्टिकोण में आमूल परिवर्त्तन हुए। अब लोग लकीर के फकीर नहीं रह गए, वरन स्वतंत्र चितन के पथ पर बढ़े तर्क और प्रयोग के सहारे मानव ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ।

4. मानवतावाद का विकास : पुनर्जागरण ने लोगों को वर्ग के प्रभाव से मुक्त कर + स्वतंत्र चितन का अवसर प्रदान किया। शिक्षा के विकास के कारण लोगों का बौद्धिक धरातल ऊंचा होने लगा। लोगों ने जीवन को सुखी और उन्नत बनाने के साधनों की खोज करनी शुरू की। उनमें कला, साहित्य और दर्शन का फिर से अध्ययन करने की अभिरुचि जगी और मानवतावाद का विकास हुआ।

5. मध्यमवर्ग का प्रादुर्भाव : पुनर्जागरण के कारण नए-नए देशों की खोज हुई और वाणिज्य व्यापार की काफी उन्नति हुई। वाणिज्य व्यापार की उन्नति के फलस्वरूप समाज में एक नए वर्ग- मध्यमवर्ग का प्रादुर्भाव हुआ पहले समाज में दो ही वर्ग थे-उच्चवर्ग और निम्नवर्ग उच्चवर्ग में जमींदार, कुलीन, पादरी आदि थे और निम्नवर्ग में किसान और मजदूर कालांतर में मध्यमवर्ग का प्रभाव सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में बढ़ता गया। इस वर्ग ने सामंतवाद को समाप्त करने में महत्वपूर्ण पार्ट अदा किया।

6. देशी भाषाओं की प्रधानता : पुनर्जागरण ने साहित्य और भाषा को भी प्रभावित किया साहित्य मानव को महत्व दिया गया। लैटिन और ग्रीक भाषाओं के स्थान पर देशी भाषाओं को अपनाया गया।

7. कला की प्रगति : पुनर्जागरण से कला को अपूर्व प्रोत्साहन मिला। प्राचीन यूनानी और रोमन कला ने मध्यकालीन यूरोपीय कला को प्रभावित किया। इस क्षेत्र में भी धर्म का स्थान मानव ने ले लिया।

8. ईसाई धर्म पर प्रभाव : पुनर्जागरण का ईसाई धर्म पर विचित्र तथा विरोधी प्रभाव हुआ। पुनर्जागरण ने ईसाई धर्म को मजबूत बनाया और ईसाईयों की संस्कृति का विकास किया। सोलहवीं शताब्दी में चर्च के विरुद्ध आंदोलन प्रारम्भ हुआ तो कुछ मानवतावादियों ने चर्च का पक्ष लिया। लेकिन, दूसरी ओर पुनर्जागरण ने ईसाई धर्म के परंपरागत विश्वासों और आस्था पर प्रहार किया।

9. प्राचीनता के प्रति प्रेम : पुनर्जागरण मध्यकालीन संस्कृति के विरुद्ध की प्रतिक्रिया और प्राचीन संस्कृति के प्रति प्रेम था। इसलिए, अब मध्यकालीन संस्कृति की उपेक्षा की जाने लगी। यूनान और रोम की प्राचीन संस्कृति में कला, विज्ञान, शासन, राजनीति तथा सामाजिक प्रणालियों को ढूंढ़ा जाने लगा। मध्यकाल में लोग बच्चों का नामकरण ईसाई संतो या बाइबिल के आधार पर करते थे, अब नामकरण सीजर, वर्जिल, प्लूटार्क, होमर, डायना, जूलिया, आगस्टा आदि पर होने लगा।

10. इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन : दूसरे विषयों के समान पुनर्जागरण के पूर्व इतिहास पर भी धर्म का प्रभाव था। इसलिए, मध्यकाल में इतिहास स्वरूप वैज्ञानिक नहीं था। मध्यकाल में इतिहास लिखते समय तिथिक्रमानुसार घटनाओं पर जोर दिया जाता था और तर्क को नाममात्र के लिए स्थान दिया जाता था। लेकिन, पुनर्जागरण के कारण धर्म का प्रभाव कम होने और विज्ञान का विकास होने से इतिहास का स्वरूप वैज्ञानिक तथा आलोचनात्मक हो गया। अब इतिहास में सत्य को स्थान दिया जाने लगा।

11. पाठ्यक्रम में वृद्धि : पुनर्जागरण के कारण शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी वृद्धि हुई। अब अन्य विषयों के अतिरिक्त ग्रीक और लैटिन का भी अध्ययन होने लगा। इसी समय से सीजर, सिसरो, वर्जिल और होमर का अध्ययन किया जा रहा है।

12. आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास : पुनर्जागरण ने अंधविश्वास को बहुत हद तक समाप्त कर दिया और तर्क की प्रधानता को प्रतिष्ठित किया। अब सभी चीजों के आलोचनात्मक अध्ययन की परम्परा चल पड़ी।

13. उपनिवेशों की स्थापना : नए-नए देशों के पता लगने से व्यापार का काफी विकास हुआ। व्यापार की उन्नति के फलस्वरूप यूरोप के विभिन्न देशों ने एशिया और अफ्रीका में स्थान स्थान पर उपनिवेश स्थापित किए। वहाँ की जनता का भीषण शोषण कर कालांतर में साम्राज्य की नींव डाली गई।

इस तरह, पुनर्जागरण ने यूरोप को एक नई दिशा दी, नई चेतना दी, नया ज्ञान-विज्ञान दिया और नई परंपराएँ दी, जिनके सहारे वह आज भी प्रगति के पथ पर अग्रसर है।

Humanity and its impacts on European society
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