नाम | अलग करती है | जोड़ती है |
बास्पोरस जलसंधि | एशिया एवं यूरोप | काला सागर एवं मरमरा (एजियन) सागर |
डारडनेल्स जलसंधि | एशिया एवं यूरोप | मरमरा सागर एवं भूमध्य सागर |
पाक जलसंधि | भारत एवं श्रीलंका | मन्नार एवं बंगाल की खाड़ी |
बाव-एल मंडेव जलसंधि | यमन-जिबूती | लाल सागर एवं अरब सागर |
कारीमाटा जलसंधि | इण्डोनेशिया | दक्षिणी चीन सागर एवं जावा सागर |
वाला बैंक जलसंधि | पलावान-बोर्नियो | सुलू सागर एवं सेलेबीज सागर |
टोकरा जलसंधि | जापान | पूर्वी चीन सागर एवं प्रशान्त महासागर |
नेमुरो जलसंधि | जापान | प्रशान्त महासागर |
सुगारु जलसंधि | जापान | जापान सागर एवं प्रशांत महासागर |
सुशीमा जलसंधि | जापान | जापान सागर एवं पूर्वी चीन सागर |
फोरमोसा जलसंधि | ताईवान एवं चीन | पूर्वी चीन सागर एवं दक्षिणी चीन सागर |
कोरिया जलसंधि | दक्षिण कोरिया एवं क्यूशू (जापान) | पीला सागर एवं जापान सागर |
तत्तर जलसंधि | पूर्वी रूस एवं सखालिन | ओखोट्स सागर एवं जापान सागर |
लापैरोज जलसंधि | सखालिन द्वीप एवं हैकेडो द्वीप | ओखोट्स सागर एवं जापान सागर |
बेरिंग जलसंधि | एशिया (रूस) एवं उत्तरी अमेरिका (अलास्का) | पूर्वी साईबेरियन सागर एवं बेरिंग सागर |
लूजोन जलसंधि | ताईवान एवं लूजोन (फिलीपींस) | दक्षिणी चीन सागर एवं प्रशांत महासागर |
मकस्सार जलसंधि | बोर्नियो (केलिमंटन) एवं सेलिबीज द्वीप | सेलेबीज सागर एवं जावा सागर |
सुण्डा जलसंधि | जावा एवं सुमात्रा | जावा सागर एवं हिंद महासागर |
मलक्का जलसंधि | मलय प्रायद्वीप एवं सुमात्रा | जावा सागर (दक्षिणी चीन सागर) एवं बंगाल की खाड़ी (हिन्द महासागर) |
जाहौर जलसंधि | सिंगापुर एवं मलेशिया | दक्षिणी चीन सागर एवं मलक्का जल संधि |
होरमुज जलसंधि | संयुक्त अरब अमीरात एवं ईरान | फारस की खाड़ी एवं ओमान की खाड़ी |
Friday, 13 October 2023
Tuesday, 12 September 2023
क्र० | नाम | पद अवधि |
1. | सुकुमार सेन | 21 मार्च, 1950 - 19 दिसम्बर, 1958 |
2. | के०वी०के० सुंदरम | 20 दिसम्बर, 1958 - 30 सितम्बर, 1967 |
3. | एस०पी० सेन वर्मा | 1 अक्टूबर, 1967 - 30 सितम्बर, 1972 |
4. | डॉ० नगेन्द्र सिंह | 1 अक्टूबर, 1972 - 6 फरवरी, 1973 |
5. | टी० स्वामीनाथन | 7 फरवरी, 1973 - 17 जून, 1977 |
6. | एस०एल० शकधर | 18 जून, 1977 - 17 जून, 1982 |
7. | आर०के० त्रिवेदी | 18 जून, 1982 - 31 दिसम्बर, 1985 |
8. | आर०वी०एस० पेरिशास्त्री | 1 जनवरी, 1986 - 25 नवम्बर, 1990 |
9. | श्रीमती वी०एस० रमादेवी | 26 नवम्बर, 1990 - 11 दिसम्बर, 1990 |
10. | टी०एन० शेषन | 12 दिसम्बर, 1990 - 11 दिसम्बर, 1996 |
11. | एम०एस० गिल | 12 दिसम्बर, 1996 - 13 जून, 2001 |
12. | जे०एम० लिंगदोह | 14 जून, 2001 - 7 फरवरी, 2004 |
13. | टी०एस० कृष्णामूर्ति | 8 फरवरी, 2004 - 15 मई, 2005 |
14. | बी०बी० टंडन | 16 मई, 2005 - 29 जून, 2006 |
15. | एन० गोपालस्वामी | 30 जून, 2006 - 20 अप्रैल, 2009 |
16. | नवीन चावला | 21 अप्रैल, 2009 - 29 जुलाई, 2010 |
17. | एस०वाई० कुरैशी | 30 जुलाई, 2010 - 10 जून, 2012 |
18. | वी०एस० संपत | 11 जून, 2012 - 15 जनवरी, 2015 |
19. | हरिशंकर ब्रह्मा | 16 जनवरी, 2015 - 18 अप्रैल, 2015 |
20. | नसीम जैदी | 19 अप्रैल, 2015 - 5 जुलाई, 2017 |
21. | अचल कुमार ज्योति | 6 जुलाई, 2017 - 22 जनवरी, 2018 |
22. | ओम प्रकाश रावत | 23 जनवरी, 2018 - 1 दिसम्बर, 2018 |
23. | सुनील अरोड़ा | 2 दिसम्बर, 2018 - 12 अप्रैल, 2021 |
24. | सुशील चन्द्रा | 13 अप्रैल, 2021 - 14 मई, 2022 |
25. | राजीव कुमार | 15 मई, 2022 - 18 फरवरी, 2025 |
26. | ज्ञानेश कुमार | 19 फरवरी, 2025 - अब तक |
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Chief Election Commissioner of India |
Friday, 18 August 2023
क्र० | नाम | पद अवधि |
1. | हरिलाल जे० कानिया | 26 जनवरी, 1947 - 6 नवम्बर, 1951 |
2. | एम० पंतजलि शास्त्री | 7 नवम्बर, 1951 - 3 जनवरी, 1954 |
3. | मेहर चंद महाजन | 4 जनवरी, 1954 - 22 दिसम्बर, 1954 |
4. | बी० के० मुखर्जी | 23 दिसम्बर, 1954 - 31 जनवरी, 1956 |
5. | एस०आर० दास | 1 फरवरी, 1956 - 30 सितम्बर, 1959 |
6. | भुवनेश्वर प्रसाद सिन्हा | 1 अक्टूबर, 1959 - 31 जनवरी, 1964 |
7. | पी०बी० गजेंद्रगडकर | 1 फरवरी, 1964 - 15 मार्च, 1966 |
8. | ए०के० सरकार | 16 मार्च, 1966 - 29 जून, 1966 |
9. | के० सुब्बाराव | 30 जून, 1966 - 11 अप्रैल, 1967 |
10. | के० एन० वांचू | 12 अप्रैल, 1967 - 24 फरवरी, 1968 |
11. | एम० हिदायतुल्लाह | 25 फरवरी, 1968 - 16 दिसम्बर, 1970 |
12. | जे०सी० शाह | 17 दिसम्बर, 1970 - 21 जनवरी, 1971 |
13. | एस०एम० सीकरी | 22 जनवरी, 1971 - 25 अप्रैल, 1973 |
14. | ए०एन० रे | 26 अप्रैल, 1973 - 28 जनवरी, 1977 |
15. | एम०एच० बेग | 29 जनवरी, 1977 - 21 फरवरी, 1978 |
16. | वाई०वी० चंद्रचूड़ | 22 फरवरी, 1978 - 11 जुलाई, 1985 |
17. | प्रफुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती | 12 जुलाई, 1985 - 20 दिसम्बर, 1986 |
18. | रघुनन्दन स्वरूप पाठक | 21 दिसम्बर, 1986 - 18 जून, 1989 |
19. | ई०एस० वेंकटरमैया | 19 जून, 1989 - 2 दिसम्बर, 1989 |
20. | एस० मुखर्जी | 18 दिसम्बर, 1989 - 25 सितम्बर, 1990 |
21. | रंगनाथ मिश्र | 25 सितम्बर, 1990 - 24 नवम्बर, 1991 |
22. | के०एन० सिंह | 25 नवम्बर, 1991 - 12 दिसम्बर, 1991 |
23. | एम०एच० कानिया | 13 दिसम्बर, 1991 - 17 नवम्बर, 1992 |
24. | एल०एम० शर्मा | 18 नवम्बर, 1992 - 11 फरवरी, 1993 |
25. | एम०एन० वेंकटचलैया | 12 फरवरी, 1993 - 24 अक्टूबर, 1994 |
26. | ए०एम० अहमदी | 25 अक्टूबर, 1994 - 24 मार्च, 1997 |
27. | जे०एस० वर्मा | 25 मार्च, 1997 - 17 जनवरी, 1998 |
28. | एम०एम० पंछी | 18 जनवरी, 1998 - 9 अक्टूबर, 1998 |
29. | ए०एस० आनन्द | 10 अक्टूबर, 1998 - 31 अक्टूबर, 2001 |
30. | एस०पी० भरुचा | 1 नवम्बर, 2001 - 5 मई, 2002 |
31. | बी०एन० कृपाल | 6 मई, 2002 - 7 नवम्बर, 2002 |
32. | जी०बी० पटनायक | 8 नवम्बर, 2002 - 18 दिसम्बर, 2002 |
33. | वी०एन० खरे | 19 दिसम्बर, 2002 - 1 मई, 2004 |
34. | एस०राजेन्द्र बाबू | 2 मई, 2004 - 31 मई, 2004 |
35. | आर०सी० लाहोटी | 1 जून, 2004 - 31 अक्टूबर, 2005 |
36. | वाई० के० सब्बरवाल | 1 नवम्बर, 2005 - 13 जनवरी, 2007 |
37. | के०जी० बालाकृष्णनन | 14 जनवरी, 2007 - 11 मई, 2010 |
38. | एस०एच० कपाड़िया | 12 मई, 2010 - 28 सितम्बर, 2012 |
39. | अल्तमश कबीर | 29 सितम्बर, 2012 - 18 जुलाई, 2013 |
40. | पी० सदाशिवम | 19 जुलाई, 2013 - 26 अप्रैल, 2014 |
41. | आर०एम० लोढ़ा | 27 अप्रैल, 2014 - 27 सितम्बर, 2014 |
42. | एच०एल० दत्तू | 28 सितम्बर, 2014 - 2 दिसम्बर, 2015 |
43. | टी०एस० ठाकुर | 3 दिसम्बर, 2015 - 3 जनवरी, 2017 |
44. | जे०एस० खट्टर | 4 जनवरी, 2017 - 27 अगस्त, 2017 |
45. | दीपक मिश्रा | 28 अगस्त, 2017 - 2 अक्टूबर, 2018 |
46. | रंजन गोगोई | 3 अक्टूबर, 2018 - 17 नवम्बर, 2019 |
47. | शरद अरविन्द बोबड़े | 18 नवम्बर, 2019 - 23 अप्रैल, 2021 |
48. | एन०वी० रमण | 24 अप्रैल, 2021 - 26 अगस्त, 2022 |
49. | उदय उमेश ललित | 27 अगस्त, 2022 - 8 नवम्बर, 2022 |
50. | धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड़ | 9 नवम्बर, 2022 - 10 नवम्बर, 2024 |
51. | संजीव खन्ना | 11 नवम्बर, 2024 - 13 मई 2025 |
52. | भूषण रामकृष्ण गवई | 14 मई 2025 - अब तक |
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Chief Justice of India |
Thursday, 20 July 2023
राष्ट्रीय चिह्न
- राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक के सिंह- स्तम्भ के शीर्ष की अनुकृति है।
- सारनाथ स्थित अशोक के सिंह-स्तम्भ में चार शेर खुले मुख करके एक-दूसरे की ओर पीठ करके दृष्टिगोचर होते हैं। राष्ट्रीय चिह्न में सिर्फ तीन ही शेर दिखाई देते हैं, जिनके नीचे की पट्टी के मध्य में उभरी हुई नक्काशी में चक्र है, जिसके दाईं ओर एक सांड़ और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएँ तथा बाएँ छोरों पर अन्य चक्रों के किनारे दृष्टिगत होते हैं।
- राष्ट्रीय चिह्न के दो भाग हैं - शीर्ष और आधार।
- शीर्ष पर शेर को दिखलाया गया है, जो साहस व शक्ति का प्रतीक है।
- आधार भाग में एक धर्म-चक्र है। चक्र के दाईं ओर एक बैल है, जो कठिन परिश्रम व स्फूर्ति का प्रतीक है तथा बाईं ओर एक घोड़ा है, जो ताकत व गति का प्रतीक है।
- आधार के बीच में देवनागरी लिपि में 'सत्यमेव जयते' लिखा गया है, जो मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है।
- इस राष्ट्रीय चिह्न को 26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया था।
- इस राष्ट्रीय चिह्न का प्रयोग सरकारी कागजों, नोटों, सिक्कों तथा मोहरों पर होता है।
- संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा) का प्रारूप 22 जुलाई, 1947 को अपनाया था।
- ध्वज में समान अनुपात वाली तीन आड़ी पट्टियाँ हैं, जो केसरिया, सफेद व हरे रंग की हैं।
- ध्वज के ऊपर गहरा केसरिया रंग होता है, जो जागृति, शौर्य तथा त्याग का प्रतीक है, बीच में सफेद रंग होता है, जो सत्य एवं पवित्रता का प्रतीक है तथा सबसे नीचे गहरा हरा रंग होता है, जो जीवन एवं समृद्धि का प्रतीक है।
- ध्वज के बीच में सफेद रंग वाली पट्टी के बीच में गहरे नीले रंग का 24 तीलियों वाला अशोक चक्र है, जो धर्म तथा ईमानदारी के मार्ग पर चलकर देश को उन्नति की ओर ले जाने की प्रेरणा देता है।
- ध्वज की लम्बाई तथा चौड़ाई का अनुपात 3:2 है।
- ध्वज का प्रयोग व प्रदर्शन एक संहिता द्वारा नियमित होता है।
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National symbols of India |
Saturday, 15 April 2023
जिस प्रकार शरीर की संरचना हाथ पाँव, नाक, कान, आँख एवं मुँह आदि कई अंगों अथवा इकाइयों से मिलकन बनी होती है। ठीक इसी प्रकार से समाज की संरचना भी होती है। प्रत्येक भौतिक वस्तु की एक संरचना होती है जो कई इकाइयों या तत्वों से मिलकर बनी होती है। ये इकाइयों परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रत्येक संरचना का निर्माण कई अंगों अथवा इकाइयों से मिलकर होता है। इन इकाइयों में परस्पर स्थायी एवं व्यवस्थित सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये अंग अथवा इकाइयाँ स्थिर रहती हैं। संरचना का सम्बन्ध बाहर की आकृति व स्वरूप से होता है। उसका संबंध आन्तरिक रचना से नहीं होता है। इस तरह से स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार शरीर या भौतिक वस्तु की संरचना होती है, उसी प्रकार से समाज की भी एक संरचना होती है जिसे सामाजिक संरचना कहा जाता है। समाज की संरचना भी शरीर की तरह ही कई इकाइयों, जैसे परिवार, संस्थाओं, संघों, प्रतिमानों, मूल्यों एवं पदों आदि से बनी होती है।
सामाजिक संरचना का अर्थ व परिभाषायें विभिन्न समाजशास्त्रियों ने जो सामाजिक संरचना की परिभाषायें दी हैं, उनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
1. मैकाइवर एवं पेज के अनुसार “समूहो के विभिन्न प्रकारों से मिलकर सामाजिक संरचना के जटिल प्रतिमानों का निर्माण होता है।"
2. मजूमदार एवं मदान के अनुसार "पुनरावृत्तीय सामाजिक संबंधों के तुलनात्मक स्थायी पक्षों से सामाजिक संरचना बनती है।"
3. टाल कॉट पारसन्स के अनुसार "सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, एजेन्सियों और सामाजिक प्रतिमानों तथ साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किये गये पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।'
4. कार्ल मानहीम के अनुसार "सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिसमें अवलोकन और चिन्तन की विभिन्न प्रणालियों का जन्म होता है।'
5. जिन्स वर्ग के अनुसार "सामाजिक संरचना का अध्ययन सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों अर्थात् समूहों, समितियों तथा संस्थाओं के प्रकार एवं इन सबके संकुल जिससे कि समाज का निर्माण होता है, से संबंधित हैं। "
6. एच. एम. जोनसन के अनुसार "किसी वस्तु की संरचना उसके अंगों के अपेक्षाकृत स्थायी अन्तर्सम्बन्धों से निर्मित होती है, स्वयं 'अंग' शब्द से ही कुछ स्थायित्व के अंग का ज्ञापन होता है। सामाजिक प्रणाली क्योंकि लोगों के अन्तर्सम्बन्धित कृत्यों से निर्मित होती हैं, इसकी संरचना भी इन कृत्यों में पायी जाने वाली नियमितता या पुनरावृत्ति के अंशों में ढूँढी जानी चाहिए।"
7. ब्राउन के अनुसार "सामाजिक संरचना के अंग या भाग मनुष्य ही है, और स्वयं संरचना संस्था द्वारा परिभाषित और नियमित संबंधों में लगे हुए व्यक्तियों की एक क्रमबद्धता है।"
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक संरचना समाज की विभिन्न इकाइयों, समूहों, संस्थाओं, समितियों एवं सामाजिक सम्बन्धों से निर्मित एक प्रतिमार्वनत एवं क्रमबद्ध ढाँचा है। इस प्रकार सामाजिक संरचना अपेक्षतया एक स्थिर अवधारणा है। जिसमें परिवर्तन अपवादस्वरूप ही देखने को मिलते हैं।
सामाजिक संरचना की विशेषताएँ (Characteristics of Social Structure)
सामाजिक संरचना की अवधारणा को इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-
1. सामाजिक संरचना एक क्रमबद्धता है : इसका तात्पर्य यह है कि जिन इकाइयों 8 के द्वारा सामाजिक संरचना का निर्माण होता है, वे एक क्रमबद्धता में व्यवस्थित होती है। यही क्रमबद्धता सामाजिक संरचना के एक विशेष प्रतिमान को स्पष्ट करती है।
2. सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत स्थायी होती है : इसे स्पष्ट करते हुए जॉन्सन ने लिखा है कि सामाजिक संरचना का निर्माण जिन समूहों तथा संघों से होता है, उनकी प्रकृति कहीं अधिक स्थायी होती है। उदाहरण के लिए, परिवार में यदि कर्ता या किसी अन्य सदस्य की मृत्यु हो जाय तो भी संयुक्त परिवार की संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता।
3. सामाजिक संरचना की अनेक उप-संरचनाएँ होती हैं: सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयों की संरचना को उनकी उप-संरचना कहा जाता है। उदाहरण के लिए, राज्य, सरकार, राजनीतिक दल तथा दबाव समूह एक राजनीतिक संरचना की उप-संरचनाएँ हैं। इसी तरह पंचायत, युवागृह तथा नातेदारी व्यवस्था, जनजातीय सामाजिक संरचना की उप-संरचनाएँ हैं। सांस्कृतिक संरचना का निर्माण करने में बहुत-सी परम्पराओं, प्रथाओं तथा मूल्यों का समावेश होता है तथा इन सभी की अपनी उप-संरचनाएँ होती हैं। यह सभी उप-संरचनाएँ मिलकर एक विशेष सामाजिक संरचना का निर्माण करती है।
4. सामाजिक संरचना के विभिन्न अंग परस्पर संबंधित होते हैं: यदि उपर्युक्त उदाहरणों के आधार पर देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि नातेदारी की संरचना शैक्षणिक, आर्थिक, धार्मिक और मनोरंजनात्मक उप-संरचनाओं से संबंधित होती है। इसी तरह व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार, विद्यालय, धर्म, सरकार, राजनीतिक दलों तथा आर्थिक उप-संरचनाओं का समान योगदान होता है। इस प्रकार सभी उप-संरचनाएँ एक-दूसरे से संबंधित रहकर किसी सामाजिक संरचना को उपयोगी और प्रभावशाली बनाती हैं।
5. सामाजिक संरचना में मूल्यों का समावेश होता है : इसका तात्पर्य यह है कि व्यवहार और सम्मान के अनेक तरीके, जनरीतियाँ, प्रथाएँ, परम्पराएँ तथा प्रतीक इसका निर्धारण करते हैं कि किसी सामाजिक संरचना की प्रकृति किस प्रकार की होगी। विभिन्न समाजों के सामाजिक मूल्य एक-दूसरे से भिन्न होने के कारण ही उनकी सामाजिक संरचना में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देता है।
6. सामाजिक संरचना के प्रत्येक अंग के निर्धारित प्रकार्य होते हैं: इन प्रकार्यों का निर्धारण सामाजिक मूल्यों तथा सामाजिक प्रतिमानों के द्वारा होता है। इन मूल्यों और प्रतिमानों में साधारणतया कोई परिवर्तन न होने के कारण भी सामाजिक संरचना की प्रकृति तुलनात्मक रूप से स्थायी हो जाती है।
7. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है : पारसन्स ने लिखा है कि सामाजिक संरचना कोई वस्तु अथवा व्यक्तियों का संगठन नहीं है, बल्कि यह केवल अनेक इकाइयों की कार्यविधियों और उनके पारस्परिक संबंधों का एक प्रतिमान है। मैकाइवर का कथन है कि जिस प्रकार हम समाज को देख नहीं सकते, उसी तरह सामाजिक संरचना भी एक अमूर्त अवधारणा है। यह सत्य है कि परिवार, गाँव, जाति, वर्ग, राज्य तथा विभिन्न समितियाँ और संस्थाएँ सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयाँ हैं किन्तु सामाजिक संरचना का तात्पर्य इन इकाइयों के बाहरी रूप से न होकर उस क्रमबद्धता से है जो समाज के एक विशेष प्रतिमान को स्पष्ट करती है। इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना की प्रकृति अमूर्त होती है।
8. सामाजिक संरचना का तात्पर्य सदैव संगठन से नहीं होता : यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था संगठन का बोध कराती है परन्तु सामाजिक संरचना में कुछ व्यक्ति अथवा इकाइयाँ भी हो सकती हैं जिनके व्यवहार सामाजिक नियमों के प्रतिकूल हो। इसे मर्टन ने सामाजिक नियमहीनता' कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना का संबंध केवल सामाजिक संगठन की दशा से ही नहीं होता, बल्कि इसमें उन सभी दशाओं का समावेश होता है जो संगठन और विघटन के तत्वों का बोध कराती हैं।
9. सामाजिक संरचना स्थानीय आवश्यकताओं से प्रभावित होती है : वास्तव में, एक विशेष सामाजिक संरचना का निर्माण उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और भौगोलिक आवश्यकताओं के आधार पर होता है। जब कभी इन दशाओं अथवा आवश्यकताओं में परिवर्तन होता है, तब सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली उप-संरचनाओं में भी कुछ परिवर्तन होने लगता है, यद्यपि सम्पूर्ण संरचना में जल्दी ही कोई परिवर्तन नहीं होता।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना का एक वाह्य रूप है जिसके निर्माण में बहुत-से समूहों, संस्थाओं, समितियों तथा सामाजिक मूल्यों का योगदान होता है। इन सभी इकाइयों की प्रकृति का निर्धारण एक विशेष संस्कृति पर आधारित होने के कारण ही सामाजिक संरचना को अक्सर सांस्कृतिक संरचना भी कह दिया जाता है।
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Social Structure and its Features |
Friday, 15 July 2022
1911 की चीनी क्रांति
चीन में मंचूवंश की स्थापना सतरहवीं शताब्दी में हुई थी और 1911 ई० तक चीन पर इस राजवंश का शासन चलता रहा। इस राजवंश के शासनकाल के पूर्व चीन एक समृद्ध देश था। परंतु मंचू-राजवंश के उत्तरकालीन शासन में राजनीतिक दृष्टि से चीन की अवस्था बहुत खराब हो गई। फलतः उन्नीसवीं शताब्दी में चीन विदेशी साम्राज्यवाद का बुरी तरह शिकार हो गया। कुशासन निर्धनता और विदेशी प्रभाव से चीन के लोग एकदम तंग हो गए। इसके विरूद्ध उनमें राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ और देश के कई क्रांतिकारी दल संगठित होने लगे। 1911 ई० में डॉ० सनयात सेन के नेतृत्व में मंचू राजवंश के विरूद्ध एक भयंकर विद्रोह हुआ, जिसे 1911 ई० की चीनी क्रांति कहते थे। इस विद्रोह ने चीन से मंचू-राजवंश को समाप्त कर दिया तथा वहाँ गणतंत्र की स्थापना की।
1911 ई० की क्रांति के कारण- 1911 ई० के चीन की क्रांति के निम्नलिखित कारण थे- 1. मंचू-राजवंश की दुर्बलता- उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में चीन की क्रांति बहुत खराब हो गई थी। खेती और उद्योग-धंधे नष्ट हो गये थे। गरीबी तथा बेकारी बढ़ रही थीं। शासन में भ्रष्टाचार फैल रहा था। चीन पर यूरोप के साम्राज्यवादी राज्यों का प्रभाव स्थापित हो रहा था। विदेशियों को चीन में हर तरह की नाजायज सुविधाएँ मिल रही थीं। इससे चीनी जनता का शोषण हो रहा था। इन सबके लिए चीन की जनता मंचू-राजवंश को उत्तरदायी मानती थी।
2. आर्थिक दुर्दशा - उस समय खेती और उद्योग-धंधों के नष्ट होने के कारण चीन की आर्थिक अवस्था दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही थी। एक ओर जनसंख्या में अति तीव्र गति से वृद्धि हो रही थी और दूसरी ओर सरकार की ओर से कृषि और उद्योग-धंधों के विकास एवं उन्नति के लिए कोई कार्य नहीं हो रहा था। इसलिए चीनी जनता में प्रशासन के प्रति बड़ा क्षोभ था।
3. पाश्चात्य जगत से संपर्क (बौद्धिक जागरण ) - बीसवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों के साथ चीन का संपर्क स्थापित हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से बहुत-से चीनी विद्यार्थी यूरोप और अमेरिका गए। वहाँ उन्हें क्रांतिकारी साहित्यों के अध्ययन का अवसर मिला। जब ये युवक स्वदेश लौटे तो अपने देश की तुलना यूरोपीय देशों के साथ करने लगे और यूरोपीय देशों के समान चीन को उन्नत बनाने का स्वप्न देखने लगे। उन्हें मंचू-राजवंश के निरंकुश शासन से बड़ी घृणा हो गई। वे उसका अंत करने के लिए व्यग्र हो उठे।
4. जनसंख्या में वृद्धि तथा प्राकृतिक प्रकोप - चीन की आबादी बड़ी तेजी से बढ़ रही श्री पर, वहाँ खाद्यान्न की कमी थी। शासन का इस ओर ध्यान नहीं था। फिर दुर्भिक्ष, महामारी, याह आदि प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लोग वाह थे। 1910-11 में चीन की कई नदियों में भयंकर बाद आई इससे खेती नष्ट हुई हो, लाखों लोग बेघर हो गए तथा भूखों मरने लगे। लोगों को सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली।
5. डॉ० सनयात सेन का योगदान - डॉ० सनयात सेन को 1911 ई० की 'क्रांति का जनक' कहा जाता है। डॉ० सनयात सेन चीन की दुर्दशा का एकमात्र कारण मंचू-राजवंश को ही मानते थे। अतः, उन्होंने चीन की व्यवस्था में सुधार लाने के लिए तुंग-सँग हुई नामक राजनीतिक दल का संगठन किया। इसी दल ने क्रांति का सूत्रपात कर मंचू-राजवंश का अंत किया।
6. स्वदेशी रेलमार्ग योजना की अस्वीकृति ( तात्कालिक कारण) - चीन में रेलमार्गों के निर्माण कार्य बड़ी तेजी से चल रहा था। 1921 ई० में चीन के धनीमानी लोगों ने रेलमार्ग-संबंधी एक स्वदेशी योजना मंचू सरकार के समक्ष प्रस्तुत की। पर, सरकार ने उनकी योजना अस्वीकृत कर दी और बदले में एक विदेशी योजना स्वीकार कर ली। इससे सारे देश में असंतोष की ज्वाला भड़क उठी।
उपर्युक्त सभी कारणों को लेकर 1911 ई० में चीन में एक महान क्रांति हो गई। सर्वप्रथम हँकाऊ के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह की आग सारे देश में फैल गई। इस क्रांति में डॉ० सनयात सेन द्वारा स्थापित 'तुंग-मंग हुई' दल ने सक्रिय रूप से भाग लिया। जब स्थिति बहुत गंभीर हो गई तो मंचू-सम्राट ने सिंहासन त्याग दिया और क्रांतिकरयों ने राजतंत्र का अंत कर चीन में गणतंत्र की स्थापना की। डॉ० सनयात सेन को इस गणतंत्र का प्रधान बनाया गया।
क्रांति की असफलता - यद्यपि 1911 ई० की क्रांति में दो हजार वर्ष पुराने राजवंश का अंत हो गया और गणतंत्र की स्थापना हुई तथापि क्रांति का उद्देश्य सफल नहीं हो सका। चीन में सही अर्थों में प्रजातंत्र की स्थापना नहीं हो सकी।
क्रांति की असफलता के निम्नलिखित कारण थे - (i) राष्ट्रीयता की भावना का अभाव - मंचू-शासनकाल में चीन कई स्वतंत्र प्रदेशों में बैठा हुआ था। इनकी शासन-व्यवस्था अलग-अलग थी। लोग चीन को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देखते थे। उनमें राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था ।
(ii) चीन की सामंतवादी पद्धति - चीन में अब भी सामंतवादी का बोलबाला था। चीन के सामंत नहीं चाहते थे कि किसी तरह के प्रजातंत्र का विकास हो। वे नहीं चाहते थे कि चीन की राजसत्ता डॉ० सनयात सेन जैसे उग्रवादी विचारवाले नेता के हाथों में रहे। अतः, 1911 ई० की क्रांति असफल रही।
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Chinese Revolution of 1911 |
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Friday, 20 May 2022
जापान में सैन्यवाद का उदय
जापानी सैन्यवाद (1928-45 ) - जापान में सैन्यवाद का उग्रवादी चरण 1928 ई० के बाद प्रारंभ हुआ। इससे पूर्व सामंतों की समुराई परंपरा में जापानी सामंत सशस्त्र सेवक पालते थे। यद्यपि जापान में मेईजी-पुनर्स्थापन के बाद उदारवादी और प्रगतिशील दल-पद्धति का विकास हुआ था किंतु राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ नहीं पाया था। जापान की नई शासन-व्यवस्था में एक कुलीन सभा की स्थापना हुई थी। इसमें सेना के उच्चाधिकारियों को भी स्थान दिए गए थे। एक निम्न सदन, डाइट (Diet) की स्थापना हुई थी, परंतु इस लोकप्रिय सदन को पूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं प्राप्त थी। वास्तविक शक्ति राजा के कार्यकारिणी परिषद (Executive Council) में रखी गई थी। इस परिषद के सदस्य ऊपरी सदन के लिए जाते थे। इसमें अधिकतर जेनरोज (Genros) नामक कुलीन ही होते थे। कार्यकारिणी परिषद के सदस्य सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे न कि डाइट (Diet) के प्रति। इन्हें डाइट को भंग करने का अधिकार नहीं था। डाइट काफी प्रभावशाली था। सेना पर खर्च बढ़ाने की अनुमति केवल वही संस्था दे सकती थी। 1925 ई० तक डाइट का सामाजिक आधार अत्यधिक बढ़ गया था। इसी वर्ष से जापान के सभी बालिग पुरूषों को मतदान का अधिकार दे दिया गया था। जनता द्वारा चुने गए नेता डाइट के सदस्य होते थे।
लोकप्रिय नेताओं ने सरकार पर अपना नियंत्रण बढ़ाने का जब प्रयास किया तब सम्राट ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार सेनामंत्री सदैव वरिष्ठ सेनापति ही चुना जाएगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप जापानी मंत्रिमंडल में सेना का प्रभाव बढ़ा लोकप्रिय दल की सरकार देश में सैनिक प्रभाव को कम करना चाहती थी किंतु संविधान के अनुसार ऐसा संभव नहीं था। संविधान के अनुसार उच्च सैनिक अधिकारियों एवं ऊपरी सदन के सदस्यों का आदर करना जरूरी था।
विकसित औद्योगिकीकरण के कारण वामपंथी आंदोलन बढ़ते जा रहे थे। रूढ़िवादी और सैन्यवादी चाहते थे कि वापमंधी आंदोलन को जापानी मंत्रिमंत्रल द्वारा 'कोई प्रोत्साहन नहीं मिले। संविधान का स्वरूप ऐसा था जिसके अनुसार उदारवादी जनतांत्रिक परंपरा का विकास संभव नहीं था। जापान में विकसित अर्थव्यवस्था के कारण उदारवादी विचारधारा का विकास हुआ। विकसित अर्थव्यवस्था ने ही जापान में पूँजीवादी वातावरण बनाया। पूँजीवाद के कारण जापान साम्राज्यवादी एवं सैन्यवादी योजनाएँ बनाने लगा। जापानी व्यापार और जनसंख्या में वृद्धि होती गई। व्यापार में वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया कि जापान दूर तक अपने व्यापार क्षेत्रों को सुरक्षित रखे और बढ़ती हुई जनसंख्या को उपनिवेशों में बसाए और सैन्य बल द्वारा ही यह संभव था।
पश्चिमी शक्तियों के साथ असमान सधियों के कारण भी जापान में सैन्यवाद का विकास हुआ। पश्चिमी शक्तियों द्वारा आरोपित संबंधों को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक था कि जापान एक शक्तिशाली औद्योगिक और सैनिक राष्ट्र बने। कोरिया, मंचूरिया और चीन में जापान की रूचि थी। आर्थिक और सामरिक दृष्टि से ये क्षेत्र जापान के लिए अति महत्वपूर्ण थे। इसीलिए 1894 से 1905 ई० तक जापान ने दो युद्ध किए एक चीन से और दूसरा रूस के साथ इन युद्धों में मिली सफलता में जापानी सैन्यवाद को प्रोत्साहित किया। सैन्यवाद के बल पर ही जापान 1909 ई० तक दक्षिण मंचूरिया, लिआयोतुंग प्रायद्वीप और कोरिया पर आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों से मिलकर जापान की गतिविधि सुदूरपूर्व में बढ़ी रही। विशेषकर, जापान जर्मन क्षेत्रों को हथियाने में लगा रहा।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जापान का सैन्य बल कुछ धीमा पड़ गया; क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों ने उसकी सैनिक शक्तियों पर वाशिंगटन-सम्मेलन में कुछ रोक लगाई और जापान राष्ट्रसंघ का सदस्य भी बना।
1920-30 में जापानी सैन्यवादी और राष्ट्रवाद का पूर्ण उत्कर्ष हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध तक बड़े आक्रामक ढंग से चलता रहा। जापान में उग्र राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के पूर्ण उत्थान का एक स्पष्ट कारण आर्थिक था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय की आर्थिक समृद्धि 1920 ई० के आसपास समाप्तप्राय होने लगी थी। जापानी कृषि में मंदी छा गई थी। यह मंदी और व्यापक रूप से छाई जब 1929-30 की विश्वमंदी का असर जापान पर भी पड़ा। जापानी निर्यात पर इसका खराब असर पड़ा। उसके रेशम-व्यापार बिल्कुल नष्ट हो गए। इस संकट की घड़ी में आर्थिक समस्या का समाधान सैन्यवादी ढंग से हो सकता था।
मेईजी पुनर्स्थापन के समय (1867 ई०) से जापान की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई। तीन करोड़ की जनसंख्या 1930 ई० में साढ़े छह करोड़ हो गई। इस स्थिति में जापान की खाद्यान्नों का आयात करना पड़ रहा था। अमेरीका की संरक्षणवादी नीति से जापान के निर्यात ठप्प पड़ते जा रहे थे। अंततः जापान विस्तृत आर्थिक क्षेत्रों को बनाना चाहता था। इस विचार के फलस्वरूप जापान में 'संयुक्त समृद्धि क्षेत्र' के नारे लगाए गए। इस विचार को बल इसलिए मिला कि जापानियों के लिए अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया एवं आस्ट्रेलिया में बसने पर रोक लगा दी गई थी। इस प्रकार, इस बात ने जोर पकड़ लिया कि शक्ति-प्रयोग से क्षेत्र विस्तृत करने के अलावा जापान के पास कोई चारा नहीं रह गया है।
इस आर्थिक संकट के बावजूद जापान का विशाल व्यावसायिक संघ जैवात्सु - Zaibatsu) भयंकर मुनाफा कमा रहा था। इस संघ की साँठगाँठ से तत्कालीन जापानी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार में लीन रहे। भ्रष्टाचार के विभिन्न कांडों के प्रकाश में आने के कारण राजनीतिकः दलों तथा पार्टी सरकार को नहीं पूरी की जा सकने वाली क्षति हुई। जनता का राजनीतिक दलों तथा पार्टी सरकार पर से विश्वास उठ गया। वस्तुतः राजनैतिक दलों पर सामान्य जनता- ग्रामीण तथा शहरी दोनों के हितों की अवहेलना के लिए प्रहार किया जाने लगा।
तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक वातावरण में यह अवश्यम्भावी हो गया था कि जापानी सैन्यवाद को जापानी जनता से भी प्रोत्साहन मिले। 1930 ई० में जापानी प्रधानमंत्री ने लंदन नेवेल कॉफ्रेंस (Londan Naval Conference) के निर्णय के अनुसार जापानी नौसेना में कटौती करना स्वीकार कर ली थी। इसके बाद केंटो सरकार ने सेना को कम करने की बात स्वीकार कर ली थी। इसी समय सैनिक नेताओं ने चीन पर आक्रमण करने की मांग की। सेना के जवान अधिकतर सरल ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते थे। उनके हृदय में इसीलिए भ्रष्ट पार्टी राजनीतिज्ञों के लिए कोई इज्जत नहीं थी।
बढ़ते हुए आर्थिक बोझ और बदलते हुए राजनीतिक परिवेश में कुछ उग्र राष्ट्रीय दल भी पैदा हो गए थे जो पार्टी सरकार का प्रतिरोध करते थे। इन अतिवादी दलों के अनुसार उदारवादी पार्टी सरकार जापानी परंपरा के विरूद्ध थी। वस्तुतः ऐसी दलें भी कड़े नीतिज्ञों का ही समर्थन करती थी। 1928-32 में जापानी सेना के जवान कुछ सेनापतियों से मिलकर सरकार विरोधी हिंसा करने लगे। मंचूरिया में स्थित जापानी क्वातुंग सेना भी अपना निर्णय स्वयं लेने लगी और टोकियो सरकार का आदेश मानने से इनकार कर दिया। सितंबर 1931 की मंचूरिया घटना के उपरांत मुकदेन क्षेत्र पर सेना छा गई और बाद में समस्त मंचूरिया पर टोकियो की असैनिक सरकार अपने सैनिकों को मंचूरिया में नियंत्रण करने में असफल रही। इसी समय दल मंत्रिमंडलों की समाप्ति हो गई और उनकी जगह राष्ट्रीय एकता का एक मंत्रिमंडल कायम किया गया। इस मंत्रिमंडल में सैनिक नेताओं का ही प्रभाव था और इसे कंट्रोल फैक्शन (Control Faction) के नाम से जाना गया। कंट्रोल फैक्शन अपनी राजनीतिक गतिविधियों में थोड़ा सजग था। सैनिकों ने सेना के उपद्रवी नौजवानों को नियंत्रित करना चाहा। कंट्रोल फैक्शन की विदेश नीति पहले जैसी ही थी। इस नई सरकार ने मंचूरिया में सेना की भूमिका को स्वीकृति दे दी। मंचूरिया में स्थित जापानी सेना ने एक कठपुतली सरकार भी कायम कर ली थी जिसे 'मंचूकुओं' के नाम से जाना जाता था। बढ़ती हुई सैन्यवादी प्रवृत्ति के इसी अवसर पर राजनीतिक दलों ने भी भयभीत होकर अपने संगठनों को स्वयं भंग कर दिया और उसके स्थान पर सभी दलों ने सेना के नेतृत्व में एक 'साम्राज्य- सहायक संघ' बनाने का निर्णय लिया।
इस प्रकार जापान की सरकार सैन्यवादियों के हाथ में चली गई। सैन्यवादियों की इच्छा के विरूद्ध कोई जा नहीं सकता था क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने से जापान को क्षेत्र विस्तार का मौका मिला था। इस मौके का लाभ जापानी समाज के हर तत्व जैसे जैबाब्सु, कृषक, श्रमिक आदि उठाना चाहते थे। इसीलिए किसी तत्व ने सैन्यवादी नीति का प्रतिरोध नहीं किया।
एक बार जापान में जब सैन्यवाद स्थापित हो गया तब इस शासन के अधीन कई हिंसात्मक घटनाएँ घटीं। 1932 ई० से नौसैनिक अधिकारियों का प्रमुख राजनीतिज्ञों पर प्रहार शुरू हुआ। 1936 ई० में जापानी सेना की एक टुकड़ी ने टोकियो में विद्रोह किया। जब जापानी सेना मंचूरिया में मंचुकूओं सरकार बनाई थी जब राष्ट्रसंघ ने मंचूरिया पर जापानी आधिपत्य का प्रतिरोध किया था। इसके फलस्वरूप मार्च 1933 में जापान राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्यागकर मंचूरिया के खनिज पदार्थों का शोषण करने लगा। इसके पूर्व 1932 ई० में ही चीन में जापानी माल का बहिष्कार किया गया विरूद्ध 70 हजार जापानी सेना शंघाई में उतार दी गई थी, परंतु राष्ट्रसंघ के कड़े विरोध से जापानी सेना वहाँ रह नहीं सकी थी। इस असफलता का मुआवजा जापान ने जेहोल (Jehol) में घुसपैठी करके लिया। जुलाई, 1937 में जापानी सेना ने बीजिंग के निकट चीनी सेना पर आक्रमण किया जिससे 'चीनी घटना' प्रारंभ हुई। जल्दी ही जापानी सेना ने नानकिंग, हाँवकाऊ और कैंटन पर कब्जा कर लिया। अमेरिका का जापान के प्रति ठीक रवैया नहीं था। दिसंबर, 1941 के पर्ल बंदरगाह पर बमबारी के फलस्वरूप जापान के विरोध में अमेरिका सक्रिय हो गया। उसने जापानी साम्राज्यवाद पर अंकुश लगा देने का निश्चय किया।
पर्ल बंदरगाह की सफलता से प्रोत्साहित होकर जापानी सेना तीव्र गति से दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकतर भाग पर छा गई। जनवरी, 1942 को फिलीपाइंस पर जापान ने कब्जा कर लिया। मई, 1942 में कैरेजिडोर को उसने जीत लिया। इसी वर्ष सिंगापुर पर जापान का अधिकार हो गया। 1942 ई० में ही इंडोनेशिया और रंगून को उसने जीत लिया।
अन्ततोगत्वा सुदूरपूर्वं एवं प्रशांत महासागर में अमेरिकी शक्ति के प्रयोग से यह स्पष्ट हो चला था कि जापान की हार निश्चित थी। जापान के सैन्यवादी इस स्थिति को स्वीकारने से इनकार करते रहे, किन्तु अमेरिका ने 6 और 9 अगस्त को हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिया। परमाणु बमों के विस्फोट से जापानी सैन्यवाद की महत्वाकांक्षाओं का अंत हो गया।
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The rise of Militarism in Japan |
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Friday, 4 March 2022
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मगध साम्राज्य की बागडोर नंदवंश के हाथों में चली गयी । नन्दवंश के अन्तिम शासक धननन्द के समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ और सिकन्दर की विजय के परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के अनेक गणराज्यों का अन्त हो गया और वहाँ यूनानी शासन व्यवस्था लागू हो गयी। परन्तु 323 ई. पूर्व में सिकन्दर की अचानक मृत्यु हो जाने से यह समस्त व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और यूनानी शासक के विरुद्ध चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी तथा भारत ने यूनानी परतंत्रता का जुआ उतार फेंका। इस विद्रोह या क्रांति का नेतृत्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया और मगध में मौर्य वंश की स्थापना की।
चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति एवं वंश के बारे में विद्वानों में मतभेद है, जो कि अभी तक दूर नहीं हो पाये हैं। चन्द्रगुप्त मौग्र की जाति एवं वंश के बारे में प्रमुख मत हैं
पहले मत के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य नन्द वंश के राजा महापद्मनन्द की 'मुरा' नामक दासी का पुत्र था। इसलिए चन्द्रगुप्त एवं उसके वंशज मौर्य कहलाये। इस प्रकार मौर्य लोग शूद्र कुल के ठहरते हैं, परन्तु यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यदि चन्द्रगुप्त शूद्र कुल का होता तो चाणक्य जैसा कट्टर ब्राह्मण कभी उसका साथ न देता और न ही उसको राजा बनने देता।
दूसरे मत के अनुसार, जिसमें बौद्ध ग्रन्थ आते हैं मौर्य शब्द प्राकृत भाषा के 'मोरिय' शब्द का रूपान्तर है। 'मोरिय' क्षेत्रिय थे, जो नेपाल की तराई में 'पिप्लिवन' नामक राज्य पर शासन करते थे। 'महापरिनिर्वाण' तथा 'दिव्यावदान' बौद्ध ग्रंथों में भी चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय माना गया है।
तीसरा मत 'परिशिष्टपर्वन के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के सरदार की एक कन्या का पुत्र था, जो क्षत्रिय वंश का था।
अधिकांश इतिहासकार अब इस बात को स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय राजकुमार था। उसने जिस राजवंश की स्थापना की वह मौर्य वंश कहलाया तथा जिस काल में उनके वंशजों ने शासन किया, वह मौर्यकाल कहलाया।
चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवनृत्त
चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवनृत्त का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया गया है-
1. चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन: चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 345 ई. पूर्व में हुआ था। इसके पिता सम्भवतः अपने राज्य से शत्रुओं द्वारा भगाये जाने पर पाटलिपुत्र के समीप आकर रहने लगे थे। चन्द्रगुप्त के पिता ने नन्द राजा की सेवा में नौकरी कर ली। परन्तु नन्द राजा और चन्द्रगुप्त के पिता में अनबन होने पर नन्द राजा ने चन्द्रगुप्त के पिता को मरवा डाला। उस समय चन्द्रगुप्त माँ के गर्भ में था। चन्द्रगुप्त की माँ छिपकर पाटलिपुत्र में ही बनी रही। जब चन्द्रगुप्त कुछ बड़ा हुआ तो उसने नन्द राजा की सेना में नौकरी कर ली। अपनी योग्यता एवं साहस से वह सेना का उच्च अधिकारी बन गया। वह जनता में लोकप्रिय हो गया जो कि नन्द शासक को अच्छा नहीं लगा और उसने चन्द्रगुप्त की हत्या करवाने की सोची। चन्द्रगुप्त को इस बात का पता लग गया और वह पाटलिपुत्र से भाग निकला। इस घटना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के मस्तिष्क में नन्द वंश को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय उत्पन्न कर दिया।
2. चाणक्य से मित्रता : इसी समय चन्द्रगुप्त की मित्रता चाणक्य नामक एक विद्वान ब्राह्मण से हुई। चाणक्य का भी नन्द राजा के हाथों घोर अपमान हो चुका था। इस पर चाणक्य ने भी नन्द वंश का अन्त करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य को उसकी योजना में उसको सहयोग देने वाला साथी मिल गया।
3. नन्दवंश के विरुद्ध विद्रोह अग्नि भड़काना : चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य ने नन्द राजा के विरुद्ध विद्रोह भड़काना तथा नन्द राजा को पराजित करने के साधन जुटाना प्रारम्भ कर दिया। तैयारियां पूरी करने के बाद उन्होंने मगध पर आक्रमण कर दिया, जिसको नन्द राजा ने बुरी तरह विफल कर दिया। चन्द्रगुप्त और चाणक्य मगध राज्य से भाग गये। वे मगध पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगे। चन्द्रगुप्त तो बहुत बड़ा विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। चाणक्य पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेशों की कमजोरियों को खूब जानता था। उसे आशंका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारी के हाथों पड़ सकता है। अतएव इस प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर वह एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करना चाहता था।
4. सिकन्दर की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न : नन्द राजाओं पर आक्रमण करने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर के पास गया। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतंत्र विचारों के कारण सिकन्दर उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मरवाने की आज्ञा दे दी, परन्तु चन्द्रगुप्त किसी प्रकार वहाँ से बच निकला। अब तो उसने नन्द राजाओं के साथ-साथ यूनानियों को भी भारत से खदेड़ने का निश्चय कर लिया।
5. चन्द्रगुप्त मौर्य एक विजेता के रूप में पंजाब पर अधिकार : अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की जनता को विदेशियों के विरुद्ध भड़काना आरम्भ किया। सिकन्दर के भारत से चले जाने के पश्चात् भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। चन्द्रगुप्त ने इन विद्रोहियों का नेतृत्व किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना प्रारम्भ किया। यूनानी सैनिक भारत छोड़कर भाग गये और जो यहाँ रह गये, उनको मरवा दिया गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना आधिपत्य कर लिया। डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि "इस प्रकार चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में भारतीय विद्रोह को सफलता प्राप्त हुई और पंजाब तथा सीमा प्रान्त चन्द्रगुप्त के अधिकार में आ गए।" 321 ई. पूर्व तक या इसी वर्ष में झेलम से लेकर सिन्धु तक का प्रदेश भी यूनानियों से छीन लिया गया। इसकी पुष्टि 321 ई. पूर्व में यूनानी सेनानायकों के मध्य सम्पन्न ट्रिपैरेडिसस की संधि से भी होती है। इसके कारण इसी वर्ष सिन्धु में नियुक्त क्षत्रप पैथान को भी हटा लिया गया। इस प्रकार सिन्धु और पंजाब पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया।
6. मगध राज्य पर आक्रमण : पंजाब को अपने अधिकार में करने के पश्चात् उसने मगध राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसकी सेना आगे बढ़ती हुई पाटलिपुत्र के निकट पहुँच गई। नन्द राजा धननन्द की पराजय हुई और वह युद्ध में मारा गया। अब 322 ई. पूर्व में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने उसका राज्याभिषेक कर दिया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने इस संबंध में लिखा है कि 323 ई. पूर्व की जून में सिकन्दर की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद यवन शक्ति का विध्वंस और नंदों की पराजय सिकन्दर की मृत्यु के दो-तीन वर्षे के भीतर ही संपादित हो चुकी होगी। अतः चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि हम 321 ई. पू. रख सकते हैं। डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ई. पूर्व में मगध की गद्दी पर बैठा अधिकांश विद्वान भी चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि 322 ई. पूर्व मानते हैं।
7. पश्चिम भारत के प्रदेशों पर विजय : चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र तक के सभी प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की थी। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है। कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में शामिल था। यहाँ उसने पुष्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था और पुष्यगुप्त ने ही सुदर्शन नाम की झील बनवाई थी।
8. दक्षिण भारत पर विजय : अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी अधिकार किया था। अशोक का साम्राज्य मैसूर तक फैला हुआ था। चूंकि अशोक ने कलिंग के अतिरिक्त अन्य किसी प्रदेश पर विजय प्राप्त नहीं की, इसलिए दक्षिणी भारत की विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त के दिया जा सकता है।
9. सेल्यूकस से संघर्ष भारत के विभिन्न प्रदेश जीतने के पश्चात् चन्द्रगुप्त का युद्ध सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर से हुआ। 305 ई. पूर्व में सिन्धु नदी के तट पर चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सेल्यूकस की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें सेल्यूकंस की पराजय हुई और विवश होकर उसको चन्द्रगुप्त से सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह भी चन्द्रगुप्त से कर दिया। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य को काबुल, कन्धार, हिरात तथा बिलोचिस्तान के प्रदेश दे दिये। उसने चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज नामक अपना राजदूत भी रख दिया। चन्द्रगुप्त ने उपहारस्वरूप 500 हाथी सेल्यूकस को दिये।
10. अन्य विजयें : रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन था। यहाँ उसने पुण्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त अवन्ति पर भी चन्द्रगुप्त मौर्य का अधिकार था। अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी विजय प्राप्त की थी। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक ने केवल कलिंग पर ही विजय प्राप्त की थी, अतः कश्मीर पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही अधिकार किया था। नेपाल और बंगाल भी चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन थे। महास्थान अभिलेख से बंगाल पर चन्द्रगुप्त मौर्य के आधिपत्य की पुष्टि होती है।
11. चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार : अनेक विजय प्राप्त करके चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य की सीमायें उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में तिनावली तक फैला दीं। इतना विशाल एकछत्र साम्राज्य भारत में पहले कभी स्थापित नहीं हुआ था। डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि “चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य हिन्दुकुश से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर मैसूर तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान के प्रदेश पंजाब, सिन्धु, कश्मीर, नेपाल, गंगा, यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, कलिंग, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी भारत का मैसूर तक का प्रदेश सम्मिलित था।"
12. मृत्यु : चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष शासन किया। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्मावलम्बी था, पर अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उसने जैन धर्म अपना लिया, फिर भी अन्य धर्मों के प्रति वह उदार और सहिष्णु था। अन्त में, उसने जैन साधु की भाँति उपवास और तप करके देह त्याग दी।
मूल्यांकन : डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, "मौर्य साम्राज्य का अगमन भारतीय इतिहास की एक अपूर्व घटना है। जिस कठिन समय में इस वंश ने अपनी नींव को दृढ़ किया, उस समय को देखकर तो सचमुच इसका स्थान बहुत उँचा हो जाता है। वह समय संकट का था और सिकन्दर का भारत पर आक्रमण हो चुका था।"
डॉ० वी० ए० स्मिथ के अनुसार, "मौर्यो के आगमन के साथ इतिहास के क्षेत्र में भी प्रकाश की ज्वलन्त किरणें फैलने लगती है। 18 वर्षों का लम्बा समय लगाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मकदूनिया के सिपाहियों को भारत की सीमा से खदेड़ा, विशेषकर पंजाब और सिन्ध की भूमि से उन्हें बाहर धकेल दिया। सेल्यूकस की शक्ति को उसने क्षीण कर दिया और स्वयं उत्तरी भारत का निर्विवाद सम्राट बना। अरियाना प्रदेश के बहुत बड़े भाग पर भी उसका अधिकार था। ये सभी विशेषतायें उसे इतिहास के महानतम और सफल शासकों के बीच स्थान देती है।"
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Achievements of Chandragupta Maurya |
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Sunday, 5 December 2021
History of Jordan |
Friday, 3 December 2021
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