Sunday 19 July 2020

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Reasons for the fall of Delhi Sultanate

सन् 1526 ई0 में पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी की पराजय तथा मृत्यु से लोदी राजवंश समाप्त हो गया। इसके साथ ही दिल्ली सल्तनत जिसकी स्थापना कुतुबुद्दीन ने  सन् 1206 ई0 में की थी, वह भी समाप्त हो गई। पानीपत युद्ध के विजेता बाबर ने जिस राज्य की स्थापना की, वह थोड़े से अंतराल को छोड़कर सन् 1707 ई0 तक भारत की सर्वोच्च शक्ति बना रहा। इस प्रकार सल्तनत की समाप्ति के साथ एक युग की समाप्ति हो जाती है। यह उपयुक्त होगा कि सल्तनत के पतन के कारणों की समीक्षा की जाए।

1. उत्तराधिकार नियम का भाव - सल्तनत के पतन का प्रथम और आधारभूत कारण उत्तराधिकार के नियम का अभाव था। अतः प्रत्येक बार जब सुल्तान की मृत्यु होने पर उत्तराधिकार का विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके फलस्वरूप रक्तपातपूर्ण संघर्ष हुए। इसके कारण अमीरों में प्रतिद्वंद्विता तथा विभाजन भी हुए जिससे सुल्तान की शक्ति दुर्बल हुई और राजवंशो का परिवर्तन भी हुआ। इस स्थिति के लिए इस्लामिक व्यवस्था भी आंशिक रूप से उत्तरदायी थी। इस्लाम में वंशानुगत उत्तराधिकार की व्यवस्था नहीं थी। इसके अनुसार सुल्तान की जेस्ट पुत्र या अपने पुत्रों या राजपरिवार के किसी सदस्य को सिंहासन उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं हो सकता था।

2. महत्वाकांक्षी अमीर वर्ग - सल्तनत के पतन का दूसरा कारण महत्वाकांक्षी अमीर वर्ग था। अमीर वर्ग का सदैव यह प्रयत्न रहता था कि उसकी सत्ता तथा शक्ति में वृद्धि हो। यद्यपि अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक जैसे शक्तिशाली सुल्तानों ने जागीरदारी प्रथा को समाप्त करके अमीरों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया था लेकिन अन्य सुल्तानों को जागीरदारी प्रथा को किसी न किसी रूप में बनाएं रखने के लिए बाध्य होना पड़ा। इन अमीरों की आकांक्षा सुल्तानों को नियंत्रण में रखने की भी थी जैसा अनेक अवसरों पर हुआ जब सुल्तानों की सत्ता नाममात्र की थी और अमीरो ने राज सत्ता पर अधिकार कर लिया था। सभी सुल्तानों को इस वर्ग में विरोध का सामना करना पड़ा था जिससे सल्तनत में अशांति और अव्यवस्था फैलती थी। मुहम्मद तुगलक ने विद्रोही अमीर वर्ग को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष किया था। फिरोज तुगलक ने उन्हें संतुष्ट रखने की नीति अपनायी थी। बहलोल और सिकंदर शाह ने केवल सिमित अर्थो में ही इस वर्ग पर नियंत्रण किया था। इस वर्ग के विरोध के कारण ही इब्राहिम लोदी असफल हो गया।

3. सरकार की दुर्बलता - सल्तनत की दृढ़ता तथा सुरक्षा सुल्तान के व्यक्तित्व पर निर्भर करती थी। इसका कारण यह था कि सुल्तान की सत्ता निरंकुश थी और प्रशासन की सफलता उसकी अपनी योग्यता पर निर्भर करती थी। एक योग्य, दूरदर्शी, बुद्धिमान शासक सल्तनत को दृढ़ता प्रदान करता था। लेकिन इस व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष यह था की सुयोग्य एवं शक्तिशाली सुल्तानों के उत्तराधिकारी प्रायः दुर्बल और अयोग्य होते थे। उनका पालन-पोषण विलासपूर्ण वातावरण में होता था। अतः उनमें संघर्ष करने तथा संकटों का सामना करने की शक्ति का अभाव होता था। अगर सरकार का कोई वैधानिक स्वरुप होता तो वंशानुगत उत्तराधिकार सुरक्षित रूप से चल सकता था। परंतु राज्य का स्वरूप सैनिक था और उनकी स्थिरता केवल सैनिक शक्ति पर ही निर्भर करती थी। प्रायः दुर्बल उत्तराधिकारियों में सैनिक योग्यता का अभाव होता था।

4. निरंतर संघर्ष का काल - सल्तनत काल एक निरंतर संघर्ष का काल था। शासक वर्ग में अपना विदेशी स्वरूप बनाए रखा और हिंदुओं से उनका संघर्ष होता रहा। इस काल में हिंदू शासकों ने सदैव इस विदेशी दासता को उखाड़ फेंकने के लिए युद्ध किया। प्रत्येक सुल्तान को हिंदू शासको के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। संपूर्ण दास काल में सुल्तानों को राजपूतों से जूझना पड़ा।

5. स्थायी सेना का अभाव - प्रायः सुल्तानों ने सामंती प्रणाली को अपनाया था। वे सैनिक अभियानों के लिए शक्तिशाली सामंतों की सेना पर निर्भर रहते थे। इस प्रकार की सेना सामंतों के प्रति निष्ठावान होती थी क्योंकि उनकी भर्ती, उन्नति आदि सामंतों के द्वारा की जाती थी।इससे सामंतों की महत्वाकांक्षा में वृद्धि होती थी और वे सिंहासन प्राप्त करने की कामना भी करने लगते थे। एक शक्तिशाली सुल्तान के लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी स्थायी सेना रखें और सामंतों के ऊपर निर्भरता को समाप्त करें। अलाउद्दीन खिलजी ने एक स्थायी सेना का निर्माण किया था लेकिन उसके उत्तराधिकारी इसे बनाए रखने में असफल रहे। इसका फल यह हुआ कि शक्तिशाली सामंत राज निर्माता बन गए और सुल्तान की स्थिति दुर्बल हो गयी। सुल्तानों की यह दुर्बलता ही सल्तनत के पतन का कारण बनी।

6. दास प्रथा - सल्तनत के पतन का कारण दास प्रथा का प्रचलन भी था। आरम्भ में कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, बलबन जैसे योग्य दास हुए थे। धीरे-धीरे दासों की संख्या बढ़ने लगी। इन दासों पर राज्य को काफी धन व्यय करना पढ़ता था और इनके लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती थी। सुल्तान के निकट रहने के कारण भी इन गुलामों की राज्य में विशेष स्थिति रहती थी। मलिक काफूर और खुसरो खाँ ऐसे ही गुलाम थे। इसमें संदेह नहीं कि वे योग्य व्यक्ति थे लेकिन वे स्वामिभक्त नहीं थे और उन्होंने अपने स्वामियों के विरुद्ध ही कार्य किया था। काफूर ने अलाउद्दीन को विष दिया और उसके परिवार के अनेक सदस्यों को मरवा डाला था। खुसरव ने भी अपने स्वामी की स्वयं हत्या कर डाली। फिरोज तुगलक ने हजारों गुलामों को रखा जो तुगलक साम्राज्य के पतन का कारण सिद्ध हुए।

7. मंगोलों का आक्रमण - मंगोलो के आक्रमणों का सल्तनत के स्थायित्व पर प्रभाव पड़ा। पंजाब तथा सिंध पर उनके आक्रमणो की आशंका निरंतर बनी रहती थी। बलबन ने इसके लिए विशेष रूप से सीमा सुरक्षा व्यवस्था की थी और इसके कारण राज्य को सीमा पर सैनिक रखना पड़ता था तथा धन व्यय करना पड़ता था। अलाउद्दीन खिलजी को भी इसी प्रकार की नीति अपनानी पड़ी थी। बलबन ने सीमा सुरक्षा के कारण सल्तनत के विस्तार की नीति त्याग दी थी यद्यपि यह अलाउद्दीन ने सीमा सुरक्षा के साथ विस्तार वादी नीति को भी अपनाया लेकिन उसे इसके लिए विशाल सेना रखनी पड़ी और कठोर राजस्व नीति अपनानी पड़ी। इस प्रकार मंगोल आक्रमणों से अस्थिरता बनी रही। इन आक्रमणों का एक दुष्प्रभाव यह भी हुआ कि इनसे प्रोत्साहित होकर सामंतो तथा हिंदू राजा सामंतों विद्रोह करते थे जिससे आंतरिक अशांति फैलती थी। फिरोज तुगलक के समय में मंगोल आक्रमण बंद हो गए। इसका फल यह हुआ कि सुल्तान ने सैनिक सतर्कता की नीति त्याग दी और जब तैमूर ने आक्रमण किया तो उसे कोई रोकने वाला नहीं था। मुहम्द तुगलक के बाद कोई भी ऐसा सुल्तान नहीं हुआ जिसमें सैनिक प्रतिभा होती और वह सीमा सुरक्षा की नीति का पालन करता।

8. साम्राज्य का विस्तार - साम्राज्य के विस्तार के साथ भी अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई थी। ये समस्याएं मुख्य रूप से संचार तथा यातायात से संबंधित थी। बंगाल पर दिल्ली का नियंत्रण शिथिल रहने का प्रमुख कारण उसकी दूरी थी। जब दिल्ली के साम्राज्य का विस्तार दक्षिण भारत में हुआ, अलाउद्दीन खिलजी ने व्यवहारिक तथा बुद्धिमत्ता  पूर्ण नीति का अनुसरण करते हुए, हिंदू राजाओं को करद राजाओं के रूप में शासन करने दिया था। मुहम्मद तुगलक ने इस नीति के स्थान पर प्रत्यक्ष शासन की नीति अपनायी। इस नीति से सुदूर दक्षिण के महत्वकांक्षी अमीरों को स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की प्रेरणा मिली और सल्तनत का विघटन आरंभ हो गया इसके बाद दिल्ली सल्तनत का क्षेत्र सीमित होता चला गया और कोई भी सुल्तान इतना शक्तिशाली नहीं हो सका जो उत्तर भारत में अपना शासन स्थापित कर सकता।

9. अन्य कारण - दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण भी थे। दिल्ली सल्तनत का अस्तित्व केवल सैनिक शक्ति पर निर्भर था। उसमें जनता की स्वीकृति नहीं थी, सुल्तानों ने बहुसंख्यक हिंदू प्रजा के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया। अतः हिंदुओं का समर्थन उन्हें कभी नहीं मिला था। यह सत्य है कि आम हिंदू जनता उदासीन रहती थी लेकिन अनेक बार उन्होंने विद्रोह किया। दोआब में बलबन और मुहम्मद तुगलक को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। अवध और उत्तरी बिहार, राजस्थान तथा बुंदेलखंड में भी इसी प्रकार की स्थितियों का निर्माण हुआ था। तैमूर का आक्रमण भी एक कारण था जिससे सल्तनत की प्रतिष्ठा की धूल में मिला दिया और उसे खोखला कर दिया। यह भी ध्यान रखने की बात है कि सल्तनत काल में सुल्तान ने सेना के विकास तथा प्रशिक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया था। अतः जब बाबर ने आक्रमण किया, सल्तनत की सेना पुराने ढंग की थी,  उसकी सैनिक चालें, संगठन आदि आक्रमणकारी की अपेक्षा निम्न कोटि के थे। ऐसी स्थिति में सल्तनत का पतन अवश्यंभावी था।

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