प्रथम चीन-जापान युद्ध के कारणों एवं परिणामों
चीन के इतिहास में अफीम के युद्धों के पश्चात यूरोप की शक्तियों द्वारा जो लूट-खसोट का युग आरम्भ हुआ, इस युग की एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावकारी घटना थी चीन-जापान युद्ध। वास्तव में, यह जापान के साम्राज्यवादी युग का संक्रमणकाल था। कुरील, सखालिन, बोनिन एवं रिकू पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात जापान की दृष्टि कोरिया की ओर थी। कोरिया के प्रति जापान की साम्राज्यवादी नीति ने चीन-जापान युद्ध को जन्म दिया।
प्रथम चीन-जापान युद्ध के कारण
(i) कोरिया की स्थिति : कोरिया को भौगोलिक स्थिति की महत्ता ने जापान एवं चीन को प्राचीन काल से ही अपनी ओर आकर्षित किया था। कोरिया प्राचीन काल से ही जापान को एक विजेता राष्ट्र मानते हुए वार्षिक उपहार प्रदान करता था। यह प्रथा मध्य युग में जापान में गृह युद्ध के समय की स्थिति को छोड़कर अबाध रूप से जारी रही। दूसरी ओर कोरिया ने स्वयं को चीन का करद राज्य माना था। कोरिया की जनता में चीन के प्रति सद्भाव, कृतज्ञता एवं प्रेम की भावना थी, तो जापान के प्रति हिडेयोशी के बर्बर आक्रमण के कारण घृणा एवं रोष था। यूरोप के अन्य देशों को कोरिया तक बढ़ने में जापान एवं चीनी सदा ही रोड़े के रूप में सामने आये। इस कारण कोरिया का संबंध भी इन्हीं दो देशों तक बना रहा। इतिहासकारों ने इसलिए कोरिया को संन्यासी राज्य कहा। इस प्रकार जापान एवं चीन दोनों ही राज्य कोरिया पर अपना-अपना प्रभुत्व मानते थे और इस प्रभुत्व में कमी नहीं आने देना चाहते थे।
(ii) जापानी हस्तक्षेप के कारण : जापान द्वारा सदा ही कोरिया को अपने प्रभाव में रखने के दो कारण थे : (a) आर्थिक एवं (b) राजनीतिक। मेईजी पुनर्स्थापना के पश्चात जिस प्रकार जापान का औद्योगिक विस्तार हुआ था उससे जापान का वृहत मात्रा में कच्चे माल एवं बाजार की नितांत आवश्यकता थी। जापान अपनी इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति कोरिया से कर सकता था। जापान की बढ़ती हुई जनसंख्या उसके लिए सिरदर्द बनती जा रही थी। ऐसी स्थिति में जापान को कोरिया वृहद् मात्रा में चावल भी प्राप्त हो सकता था, क्योंकि कोरिया चावल का वृहद् मात्रा में उत्पादन करने वाला देश था। कोरिया में चावल के निर्यात पर लगा प्रतिबंध जापान के लिए महान बाधा था। अतः कच्चे माल एवं चावल प्राप्त करने तथा जापानी बढ़ती जनसंख्या को खपाने के लिए जापान के कोरिया में महत्वपूर्ण हित निहित नहीं थे। यही कारण है कि विनाके ने जापान को आर्थिक हितों को युद्ध के लिए अधिक उत्तरदायी माना है।
दूसरी ओर जापान ने राजनीतिक दृष्टि से भी कोरिया में हस्तक्षेप किया। जापान को कोरिया में रूसी हस्तक्षेप का भय था। रूस की सुदूरपूर्वी सीमाएं कोरिया की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं से मिलती थी। इधर रूस ने 1868 ई0 में उसूरी नदी के पूर्व के भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित करते हुए कोरिया के उत्तरी सीमा के पास ब्लाडीवोस्टोक नामक बंदरगाह स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली। दूसरी ओर रुसी प्रभाव की समाप्ति के लिए इंग्लैंड प्रयत्नशील था। अतः इंग्लैंड ने उक्त उद्देश्य से दक्षिणी कोरिया के हैमिल्टन बंदरगाह पर अपना अधिकार कर लिया। इस समय बाह्य संसार से अलग एवं राष्ट्रीय अज्ञानता से अनभिज्ञ कोरिया किसी भी यूरोपीय शक्ति के हस्तक्षेप का सामना करने की क्षमता नहीं रखता था। रूस एवं इंग्लैंड द्वारा कोरिया के समीप अपने प्रभाव की वृद्धि करने एवं पहले से ही कोरिया में चीन का प्रभाव होने से जापानी राजनेता सशंकित हो गए। 'महादेशीय विस्तार सिद्धांत' के समर्थक राजनेता कोरिया को जापान में मिलाने के लिए कृत संकल्प थे। इसके लिए किसी भी युद्ध के लिए तैयार थे।
(iii) जापान द्वारा कोरिया की स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान करवाना : 1875 ई0 में एक जापानी जहाज के कोरिया पहुंचने पर उस पर गोलीबारी कर नष्ट कर दिया गया। युद्ध की मांग की प्रबलता से प्रभावित होकर जापानी सरकार ने 1876 ई0 में एक दूतमंडल कोरिया की राजधानी सियोल भेजा। जापानी दबाव में आकर कोरिया को जापान के साथ एक संधि करनी पड़ी। इस संधि के द्वारा जापानी व्यापार के लिए कतिपय कोरियाई बंदरगाह खुल गए। जापान को राज्यक्षेत्रातीत अधिकार एवं अनेक व्यापारिक विशेषताधिकार भी प्राप्त हो गए। जापान को सीमा शुल्क निर्धारण की सार्वभौमिकता प्राप्त हुई। जापान का एक दूतावास सियोल में स्थापित कर दिया गया। जापान की देखा-देखी ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जर्मनी व इटली ने भी कोरिया के साथ संधियाँ की। इस प्रकार विभिन्न विदेशी शक्तियों से संधियाँ कर कोरिया एक सार्वभौमिक एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में सामने आया। इससे अब यह चीन का 'करद राज्य' नहीं रहा और उसका एकाकीपन समाप्त हो गया। वास्तव में जापान ऐसा करके चीनी हस्तक्षेप एवं प्रभाव को कोरिया से समाप्त करना चाहता था, परंतु सार्वभौमिकता प्रदान करने पर भी 'संन्यासी राज्य' एवं 'दैवीय साम्राज्य चीन' की प्रगाढ़ता में कोई कमी नहीं आई। कोरिया किसी भी हालत में चीन की सलाह से वंचित नहीं होना चाहता था और स्वयं चीन भी अपने प्रभाव में कमी आने देना चाहता था। अतः जापान के इस महत्वपूर्ण एवं प्रभावकारी कार्य ने जापान को चीन का स्पष्ट प्रतिद्वंदी बना दिया।
(iv) कोरिया में आंतरिक विद्रोह : चीन-जापान युद्ध के लिए कोरिया में 1894 ई0 में होने वाला विद्रोह भी कम उत्तरदायी नहीं है। कोरिया में इस समय एक दल चीन समर्थक था और दूसरा जापान समर्थक। चीन के समर्थक दल ने कैथोलिक धर्म प्रचारकों के विरोध में तोंगहाक नामक दल का गठन 1858 ई0 में कोरिया में किया था। इस दल का प्रमुख कार्य बुद्ध, कन्फ्यूशियस कंफ्यूज एवं लाओजी के सिद्धांत का प्रसार करना था। इस समय कोरिया के भ्रष्ट प्रशासन से दुखी होकर दक्षिणी कोरिया की जनता ने तोंगहाक दल के नेतृत्व में प्रशासन की भ्रष्टता के विरोध में एक विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह इतिहास में 'तोंगहाक विद्रोह' के नाम से जाना जाता है। प्रशासन ने इस विद्रोह को दबाने में अक्षम होने के कारण चीन से सहायता मांगी। संकोच के साथ चीन ने 1500 सैनिकों की एक टुकड़ी सियोल भेज दी। जापान ने इससे चीनी प्रभाव की वृद्धि होने के डर से तुरंत अपनी एक 8000 सैनिकों की टुकड़ी सियोल भेज दी, परंतु जब तक ये दोनों सेनाएं सियोल पहुंचती विद्रोह शांत हो गया, परंतु दोनों देशों की सेनाएं जब सियोल पहुंची तो अब कोरिया की भूमि पर दो विदेशी सेनाएं थी। जापान ने इसी बीच चीन के सम्मुख कोरिया में सम्मिलित रूप से सुधार का प्रस्ताव रखा। चीन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर जापान ने कोरिया की सरकार पर जापानी सुधार योजना की स्वीकृति मांगी। कोरिया से स्वीकृति न मिलने पर जापान अत्यधिक रुष्ट हो गया और युद्ध का बहाना ढूँढ़ने लगा।
(v) तात्कालिक कारण : 25 जुलाई, 1894 ई0 को जापानी जंगी जहाजी बेड़े 'नानीवा' ने चीनी नौसेना के लिए रसद ले जाने वाले ब्रिटिश बेड़े 'कोसिंग' को नष्ट कर दिया। इस पर दुःखी होकर चीन ने 1 अगस्त, 1894 ई0 को जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
इस प्रकार माना जा सकता है कि चीन-जापान युद्ध का वास्तविक कारण जापान एवं चीन दोनों के लिए कोरिया में अपनी-अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करना था। Vinacke के शब्दों में कहा जा सकता है की "चीन और जापान के ऐतिहासिक संबंध कोरिया में ही केंद्रित है और कोरिया को लेकर ही एशिया के इन दो महान राष्ट्रों में पहली बार गंभीर संघर्ष हुआ। इस युद्ध में अन्तः जापान की विजय हुई और चीन को आत्मसमर्पण कर 17 अप्रैल, 1895 ई0 की शिमोन्स्की की संधि के लिए बाध्य होना पड़ा।
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